“ऋषि दयानन्द और दीपावली पर्व”
दीपावली वैश्य वर्ण का पर्व है जिसे सामाजिक समरसता की दृष्टि से सभी देशवासी मिलकर प्राचीन काल से मनाते आ रहे हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
वेद मनुष्यों को ज्ञानी बनकर देश व समान को ज्ञान से लाभान्वित करने की प्रेरणा देने के साथ उसकी अन्याय व शोषण आदि से रक्षा करने तथा अन्नादि पदार्थों के देश में अभावों को दूर करने के लिये किसी एक कार्य को चुनने व करने की प्रेरणा देने हैं। कृषि व वाणिज्य आदि कार्यों को करके देश से अभाव दूर करने वाले मनुष्यों को वैश्य वर्ण में सम्मिलित किया जाता है। दीपावली वैश्य वर्ण का पर्व है जिसे सामाजिक समरसता की दृष्टि से सभी देशवासी मिलकर प्राचीन काल से मनाते आ रहे हैं। कार्तिक महीने की अमावस्या के दिन इस पर्व को मनाये जाने के अन्य कारण भी हैं। यह पर्व वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद मनाया जाता है। वर्षा ऋतु के कारण गृहों के भवनों में नमी व सीलन आ जाती है। भवनों में लिपाई पुताई सहित मरम्मत आदि की भी आवश्यकता होती है। दीपावली से पूर्व इन कार्यों को करके गृहों को स्चच्छ व सुन्दर बनाया जाता है। अशिक्षित लोगों में यह जनश्रुति है कि इस दिन घर को लीप-पोत कर उसके लक्ष्मी पूजा करने से धन की लक्ष्मी घर में प्रवेश करती है और परिवार धन सम्पन्न होता है। हमने अपने परिवार में बचपन में ही इस प्रकार की भावनाओं को देखा है। यहां तक की रात्रि में घर के मुख्य द्वार को खोलकर सोते थे जिससे लक्ष्मी दरवाजे को बन्द देखकर लौट न जाये। समय के साथ मनुष्य अपनी सोच एवं विद्या आदि के द्वारा अपने पर्वों में भी सुधार करता रहता है। महर्षि दयानन्द (1825-1883) के प्रादुर्भाव और उनके वेद प्रचार के कार्यों से देश में जागृति आयी और लोग पर्व का महत्व समझने लगे। पर्व का अर्थ मनुष्य के जीवन में निराशा को दूर कर उत्साह एवं उमंग का संचार करना होता है। इसके साथ प्रमुख धार्मिक पहलुओं को भी जोड़ दिया जाता है जिससे हम अपने धर्म व संस्कृति को जानकर उससे जुड़े रहें और हमारी आस्था व निष्ठा धर्म व संस्कृति के मूल तत्चों सदाचार, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान आदि में बनी रहे। ऋषि दयानन्द ने हमें बताया था कि मनुष्य को सभी शुभ अवसरों पर सन्ध्या एवं देवयज्ञ अग्निहोत्र का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। इससे हम ईश्वर से जुड़ते हैं और जीवन के सभी छोटे व बड़े कार्यों में हमें ईश्वर का सहाय प्राप्त होता है। ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना करने का एक लाभ यह भी होता है कि हम अहंकार से बचते हैं। ईश्वर सबसे महान है और वही हमारे कर्मों के आधार पर हमें सुख व दुःख प्रदान करता है। यदि हम कुछ भी अनुचित करेंगे तो ईश्वर उसका दुःख रूपी दण्ड अवश्य देगा। इस ज्ञान से हम पक्षपात व अन्याय रूपी कर्मों से बच कर अपने जीवन को दुःखों से बचाते और सुखों से युक्त रखते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं।
दीपावली पर्व पर खरीफ की फसल किसान के घर में आती है। चावल इस फसल का प्रमुख अन्न होता है। इसे प्रतीक मानकर इसको भून कर खील बनायी जाती है और इससे यज्ञ सम्पन्न कर इसका पड़ेसियों में वितरण कर भक्षण किया जाता है। हम बचपन में खील को चाय में डालकर खाते थे और इसके साथ चीनी से बने बतासे तथा खिलौने साथ में खाते थे तो यह अत्यन्त स्वादिष्ट लगता था। आज के बच्चे सम्पन्नता आदि के कारण इसका सेवन छोड़ चुके हैं। नई फसल के स्वागत के लिये ही किसान व अन्य सभी मनुष्य मिलकर इस दीपावली के पर्व को मनाते हैं। यही दीपावली पर्व का मुख्य आधार है। मनुष्य के जीवन में सबसे अधिक महत्व वायु, जल और अन्न का होता है। परमात्मा ने वायु और जल को सर्वत्र सुलभ बनाया है। मनुष्य को इनको उत्पन्न नहीं करना होता। अन्न उत्पन्न किया जाता है। किसान व सारा देश अन्न पर ही आश्रित है। यदि अन्न न हो तो यह संसार नहीं चल सकता। अन्न मनुष्य जीवन की प्राथमिक अनिवार्य आवश्यकता है। पर्याप्त अन्न न मिले तो मनुष्य कुपोषण से ग्रस्त होकर शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। अतः किसान द्वारा खरीफ की फसल की प्राप्ति पर समस्त देशवासियों में प्रसन्नता, उत्साह एवं उमंग का वातावरण होना स्वाभाविक होता है। इसी की अभिव्यक्ति दीपावली पर्व के रूप में होती है।
एक किंवदन्ती यह भी प्रचलित है कि दीपावली के दिन ही मर्यादा पुरुषोत्तम राम लंका में रावण का वध कर सीता और लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटे थे। अयोध्यावासी राम के आगमन से अतीव प्रसन्न थे। सबसे अधिक प्रसन्नता भरत जी को थी जिन्होंने राम के वियोग में 14 वर्ष बहुत ही कष्टों एवं तपस्यापूर्वक व्यतीत किये थे। अतः राम के 14 वर्षों बाद अयोध्या आगमन के उपलक्ष्य में दीपावली के द्वारा अपनी प्रसन्नता को व्यक्त किया गया था। बाल्मीकि रामायण के अनुसार रामचन्द्र जी ने वर्षा ऋतु की समाप्ती के बाद सीता जी की खोज आरम्भ कराई थी। उसके बाद रामेश्वरम से लंका तक सेतु तैयार किया गया था। सेतु तैयार होने के बाद सेना लंका पहुंची थी और राम-रावण युद्ध हुआ था। आजकल तो छोटे-छोटे सेतुओं में वर्षों लग जाते हैं। इस सेतु के बनने में कितना समय लगा होगा, इसका अनुमान करना कठिन है। रामायण के विवरण से स्पष्ट अनुमान होता है कि कार्तिक अमावस्या के अवसर पर तो सीता माता की खोज हो रही थी अथवा खोज हो जाने के बाद समुद्र पर सेतु बन्धन का कार्य आरम्भ किया गया होगा। अतः दीपावली के अवसर रामचन्द्र जी के अयोध्या लौटने की बात ऐतिहासिक दृष्टि से युक्त नहीं है तथापि रामचन्द्र जी के महान् व्यक्तित्व के कारण यदि हम इस पर्व पर उनको भी स्मरण करते हैं तो हमारी दृष्टि में ऐसा करना अच्छी बात है। ऐसा करने से हमारे धर्म और संस्कृति की रक्षा होती आयी है।
दीपावली के अवसर पर कुछ अनुचित प्रथायें भी प्रचलित हैं। द्यूत या जुआ खेलना निन्दनीय परम्परा है। वैदिक धर्म में द्यूत को बहुत बुरा बताया गया है। मनुष्य को कभी भी इसका सेवन नहीं करना चाहिये। दीपावली के अवसर पर बम व पटाखे फोड़ने का औचीत्य समझ में नहीं आता। ऐसा करके हम अपनी प्राण चवायु को दूषित करने के अपराधी बनते हैं। इसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। दीपावली पर मिठाईयों का आदान-प्रदान भी खूब होता है। देश के मांसाहारियों के कारण आज शुद्ध दुग्ध मिलना दुष्कर है। अतः देश में कृत्रिम दूध व मावे से मिठाईयां बनाई जाती है जो विष का काम करती हैं। मिठाईयों का सेवन भी स्वास्थ्य के लिये अहितकर होता है। मिठाईयों के सेवन व इसके वितरण से बचने का भी प्रयत्न करना चाहिये। खील, बतासे और चीनी के बने खिलाने हमारी पुरानी परम्परा में आते हैं। इसी का सेवन एवं वितरण उचित प्रतीत होता है। मिठाईयों के वितरण में धन-शक्ति के दिखावे से संस्कृति व परम्पराओं की रक्षा नहीं हो सकती। दीपावली को एक धार्मिक पर्व के रूप में मनाना उचित है। इस अवसर पर वेद पाठ एवं वेदों का स्वाध्याय करना चाहिये। ईश्वर का ध्यान एवं वृहद यज्ञ का आयोजन कर वायु शुद्धि करनी चाहिये। राम, कृष्ण एवं दयानन्द जी भी सन्ध्या व यज्ञ करते कराते थे। वह हमारे धर्म व संस्कृति के मूर्तरूप हैं। उनका स्मरण और उनके अनुरूप जीवन बनाना हमारा कर्तव्य है। हम प्रतिदिन ईश्वर व अपने इन महापुरुषों को स्मरण करेंगे तो हम आज भी इनसे सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा ग्रहण कर सकेंगे जिससे हमारा जीवन सार्थक होगा और हम धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश लिखकर वैदिक धर्म एवं संस्कृति के प्रचार व प्रसार का चिरकाल के लिये प्रबन्ध कर दिया है। आर्यसमाज सत्यार्थप्रकाश का प्रचार करता है। आर्यसमाज से इतर जिज्ञासु बन्धु भी इस ग्रन्थ को प्राप्त कर वैदिक धर्म में दीक्षित हो सकते हैं। ऐसे बहुत से विद्वान हुए हैं जिनका जीवन सत्यार्थप्रकाश से ही बदल गया तथा वह इसके द्वारा ईश्वर के भक्त और वैदिक धर्म के अनुयायी बने।
ऋषि दयानन्द ने जीवन से जुड़े सभी महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान वेद से प्राप्त किया था। वेद ज्ञान के भण्डार हैं जिनका आविर्भाव सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से हुआ है। इसका उद्देश्य मनुष्यों को सन्मार्ग बताना और दुःखों से पृथक रखकर उन्हें सुख प्रदान करने सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त करना है। वेद एवं वेदों पर आधारित ऋषियों के दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ ही ऐसे ग्रन्थ हैं जो मनुष्य की सभी शंकाओं का समाधान करते हैं और उन्हें दुष्कर्मों से बचाते तथा उन्हें ईश्वर का सान्निध्य प्रदान कराते हैं। वेदाध्ययन एवं तदनुरूप आचरण करने से मनुष्य सुखों से युक्त होकर अभ्युदय को प्राप्त होता है तथा भावी जन्मों उसकी आत्मा की उन्नति होकर वह मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। ऋषि दयानन्द ने मथुरा में सन् 1863 में अपने गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की पाठशाला में विद्या पूरी कर देश भर में घूमकर वैदिक ज्ञान का प्रचार व प्रसार किया। उनके समय में हमारे देश व विश्व में सर्वत्र अविद्या का प्रसार था। विद्या के प्रसार से अविद्या के पोषक अज्ञानी व स्वार्थी लोग उनके शत्रु बन गये थे। इस कारण जोधपुर में उन्हें विषपान कराने का षडयन्त्र किया गया था। यह विषपान ऋषि दयानन्द जी की मृत्यु का कारण बना। दीपावली 30 अक्टूबर सन् 1883 के ही दिन सायं लगभग 6.00 बजे उन्होंने मृत्यु का वरण करते हुए अपने प्राणों का उत्संर्ग किया था। ऋषि दयानन्द के दीपावली के दिन अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से दीपावली पर्व में एक प्रमुख रूप में यह घटना भी जुड़ गई। वैदिक धर्मी आर्यों के लिये दीपावली का महत्व जहां एक प्राचीन पर्व के रूप में हैं वहीं ऋषि दयानन्द के बलिदान पर्व के रूप में भी है।
यह अवसर ऋषि दयानन्द के वेदोद्धार के महान कार्यों को स्मरण कर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने का दिवस भी होता है। यदि वह न आते तो यह कहना कठिन है कि हमारा धर्म व संस्कृति विधर्मियों के प्रहारों व षडयन्त्रों से बच पाती अथवा नहीं। देश भी आजाद होता, इसकी भी सम्भावना नहीं थी। महर्षि दयानन्द ने समाज को सद्ज्ञान देकर लोगों को उनके कर्तव्यों का बोध कराया था। उन्होंने ईश्वरोपासना एवं देवयज्ञ के प्रचार सहित स्त्रियों के सम्मान, शिक्षा व विद्या के विस्तार एवं देश की उन्नति सहित देश को स्वराज्य की प्राप्ति का मन्त्र व प्रेरणा भी की थी। ऋषि दयानन्द ने देश व विश्व में समग्र आध्यात्मिक एवं सामाजिक क्रान्ति की थी। उन्होंने देश में प्रचलित सभी अन्धविश्वासों, मिथ्या परम्पराओं व प्रथाओं पर वैदिक ज्ञान के अनुसार प्रहार कर उनका निवारण करने का अभूतपूर्व एवं प्रभावशाली प्रयत्न किया था। राम व कृष्ण के बाद दयानन्द जैसा महान पुरुष इस धरती पर कहीं उत्पन्न नहीं हुआ। ऋषि दयानन्द ने ही ईश्वर का हमसे परिचय कराया है। वैचारिक धरातल पर उन्होंने हमें ईश्वर का प्रत्यक्ष भी कराया। हम ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप से परिचित होने सहित उसकी प्राप्ति के साधन सन्ध्या-उपासना एवं योगाभ्यास आदि से परिचित हुए। उनसे प्राप्त ज्ञान से ही हमारी आत्मा उन्नत होकर ज्ञान के आलोक से प्रकाशित हुई है। हम जन्म व मृत्यु के रहस्य को जान पाये हैं। सद्कर्मों के महत्व एवं दुष्कर्मों के परिणामों से भी उन्होंने ही हमें अवगत कराया था। उनके समस्त मानव जाति पर अगणित ऋण है जिन्हें चुकाया नहीं जा सकता। उन्होंने ही आध्यात्मिक उन्नति के लाभों को बताकर भौतिक उन्नति से जुड़ी जीवन को पतित व भविष्य को अन्धकारयुक्त करने वाली चेष्टाओं से भी सबको सावधान किया है। हम सत्यार्थप्रकाश व वेद की सहायता से सत्यासत्य का निर्णय कर सत्य का अनुसरण करें और अपने जीवन सहित अपने देश का भी कल्याण करें। अन्धविश्वासों व अविद्या से बचे रहे। यही उनके जीवन का सन्देश है। दीपावली मनाते हुए हमें उनको स्मरण कर उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिये और अपने जीवन को अध्यात्म एवं सामाजिक उन्नति से युक्त करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
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