मनुष्य का कर्तव्य 'जियो और जीने दो' सिद्धान्त का पालन करना है। कोई मनुष्य यह नहीं चाहता दूसरा कोई मनुष्य उसके प्रति हिंसा का व्यवहार करे। अतः उसका भी यह कर्तव्य बनता है कि वह भी किसी मनुष्य या इतर प्राणी के प्रति हिंसा का व्यवहार न करे। हिंसा से मनुष्य सहित अन्य सभी प्राणियों को दुःख व पीड़ा होती है। मनुष्य तो दुःख में रो सकता है, अपनों को अपनी व्यथा बता सकता है परन्तु मूक प्राणी तो अपनी बात किसी को कह भी नहीं सकते। हम अनुमान लगा सकते हैं कि उनको मनुष्यों द्वारा की जाने वाली हिंसा से कितना दुःख व पीड़ा होती होगी। मनुष्य को यदि कांटा भी चुभ जाता है तो वह दुःखी व व्याकुल हो जाता है। यदि हम किसी के गले पर शस्त्र प्रहार कर मांसाहार व ऐसे किसी प्रयोजन के लिए उसके प्राण हरण का कार्य करें या करायें, तो यह अमानवीय एवं घोर क्रूर कृत्य होता है। पशु को मारना, मरवाना, उनको अकारण कष्ट देना व उनकी हत्या में सहायक होने सहित उन पशुओं से अपने मांसाहार के प्रयोजन को सिद्ध करना घोर अमानवीय एवं निन्दनीय कार्य हैं। यह अधर्म एवं पाप कर्म है जिसका फल मनुष्य को अपनी मृत्यु के बाद पशु व पक्षी आदि योनियों में से किसी एक में जन्म लेकर भोगना पड़ता है।
वैदिक सिद्धान्त है कि मनुष्य जो भी शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप कर्म करता है उसके फल उसको अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। पशु हत्या करना व हमारे किसी निमित्त से कोई अन्य मनुष्य करे, तो हम उसमें समान रूप से दोषी व अपराधी होते हैं। हम यह भूल रहे होते हैं कि यह संसार किसी सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान सत्ता से चल रहा है। वह सत्ता इस संसार की स्वामी, मालिक तथा न्यायाधीश है। उस सत्ता परमात्मा ने जीवों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मानुसार ही यह मनुष्य आदि जन्म दिया गया है। इस जन्म में हम पूर्वजन्म के किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल भी भोगते हैं और कुछ इस जन्म और कुछ परजन्म को सुखी व उन्नत बनाने के लिये नये कर्म भी करते हैं। परमात्मा सभी जीवों की आत्माओं के भीतर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी रूप से साक्षी रूप में निवास कर रहा है। किसी जीव व प्राणी का कोई कर्म परमात्मा की दृष्टि से बचता नहीं है। परमात्मा की व्यवस्था ऐसी है कि कोई भी मनुष्य बिना भोगे अपने कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता। कोई ऐसा मत व सम्प्रदाय नहीं है जिसकी शरण में जाने से हमारे किये हुए पाप कर्म क्षमा हो सकते हों। यदि कोई ऐसा कहता है तो वह प्रमाणहीन होने से असत्य कहता है।
मनुष्य का कर्तव्य है कि वह जीवन में ईश्वर, जीव व प्रकृति का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करे और कर्म-फल व्यवस्था को जानकर अपने जीवन, आचरण व दिनचर्या को उसके अनुरूप बनाये। ऐसा करके ही मनुष्य असत् कर्मों का त्याग कर तथा सत् कर्मों को धारण कर दुःखों से बच सकता है और परजन्म में भी उन्नति व सुखों को प्राप्त हो सकता है। यही कारण था व है कि धर्मात्मा व विवेकशील मनुष्य शुभ, पुण्य व धर्मानुकूल कर्मों को करते हैं और सुख व सन्तोष का अनुभव करते हुए दीर्घायु का भोग करते हैं। वेदों में भी परमात्मा ने सदाचरण व धर्माचरण की ही आज्ञा दी है। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का दूसरा मन्त्र 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः' कहकर बताया गया है कि मनुष्य वेद विहित कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे। हमें वेद विहित-कर्म ही करने हैं तथा वेद-निषिद्ध कर्मों का त्याग करना है। ऐसा करके ही हम इस जन्म व परजन्म में सुखी हो सकते हैं। यदि हमने मांसाहार किया अथवा भ्रष्टाचार से धन कमा भी लिया तो हम कुछ दिन, युवावस्था में ही, सुख भोग कर सकते हैं। वृद्धावस्था में तो रोग आदि व परिवार में कुछ दुःखद घटनाओं, पत्नी व पुत्र आदि का वियोग होने पर शेष जीवन दुःख में ही बीतता है। इसके अतिरिक्त भी यदि हमारे बुरे कर्मों की जानकारी सरकार के न्याय विभाग तक पहुंच गई तो फिर जांच व न्याय व्यवस्था में फंसकर सुख काफूर हो जायेंगे और मृत्यु पर्यन्त हमारा अपयश, तनाव एवं दुःखों में ही व्यतीत होगा। ऐसे व्यक्तियों को देख कर लोग कहते हैं कि देखो! वह चोर जा रहा है। अतः मनुष्य को सभी पहलुओं पर विचार कर सद्कर्मों को ही करना चाहिये। इसी से सुख व चैन का जीवन प्राप्त होता है।
मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये अन्न, दुग्ध, फल व ऐसे ही अनेक पदार्थों की आवश्यकता होती है। दुग्धधारी पशुओं में मुख्यतः गाय, बकरी, भैंस आदि पशु आते हैं। गाय प्रायः संसार के सभी देशों में पायी जाती है। गाय का दुग्ध मनुष्य के लिये सर्वोत्तम है। देशी गाय का दुग्ध प्रायः मां के दुग्ध के समान ही होता है। इस दुग्ध में बच्चे व बड़ों को पूर्ण भोजन व पौष्टिक तत्व प्रदान करने की पूर्ण सामथ्र्य होती है। ऐसा ज्ञात हुआ है कि यदि मनुष्य केवल दुग्धपान ही करे तो भी उसका शरीर जीर्ण व दुर्बल नहीं होता। वह स्वस्थ रहता है। उसकी बुद्धि की क्षमता अधिक होती है। अतः जिन पशुओं से हमें सीधा लाभ प्राप्त हो रहा है उनके प्रति हमारा भी कर्तव्य है कि हम उनको अच्छा वातावरण जिसमें अभय व प्रेम हो, देना चाहिये। ऐसा करके हम पशुओं के प्रति कोई अहसान नहीं करते अपितु यह हमारा कर्तव्य बनता है। जो मनुष्य किसी से सेवा व सुख प्राप्त करता है तो वह उसका ऋणी होता है। इस प्रकार से हम उन सभी दुग्धधारी पशुओं व कृष्कों के ऋणी होते हैं जो परिश्रम करके अन्न, दुग्ध व फल आदि उत्पन्न करते व हमें पहुंचाते हैं। इसके विपरीत पशुओं का पालन न करना अथवा उनका मांस खाना अमानवीय एवं ईश्वर की आज्ञा व अपेक्षाओं को भंग करने वाला कार्य होता है जिसका दण्ड परमात्मा की व्यवस्था से मनुष्य को मिलता है। हमारे अस्पतालों में जो रोगी दिखाई देते हैं उनमें से अधिकांश अपने कर्मों के कारण ही दुःख उठाते हैं। यह कर्म इस जन्म व पूर्वजन्म दोनों जन्मों के होते हैं। इससे बचने के लिये हमें पूर्ण शाकाहार बनना होगा। इतना ही नहीं हमें पशुओं की रक्षा भी करनी है और उनका पालन भी करना है। ऐसा करके हम अपना यह जीवन सार्थक कर सकते हैं और अपने भावी व परजन्म के जीवन को भी सुधार कर सकते हैं।
मनुष्य के शरीर में एक जीवात्मा होता है जो चेतन पदार्थ है। चेतन पदार्थ के मुख्य गुण ज्ञान प्राप्ति व कर्म होते हैं। मनुष्य ज्ञान अर्जित कर सकता है और ज्ञान के अनुरूप अथवा अज्ञान के वशीभूत होकर अन्धविश्वासों आदि का आचरण कर सकता है। शास्त्र मनुष्य को सद्ज्ञान प्राप्त करने, जो वेदों व वेदानुकूल ग्रन्थों यथा सत्यार्थप्रकाश, विशुद्ध मनुस्मृति आदि से प्राप्त होता है, की प्रेरणा करते हैं और वेद के अनुसार ही सदाचरण पर बल देते हैं। ऐसा करने से मनुष्य अशुभ कर्मों से बचा रहता है और इनके दुःख रूपी परिणाम व फल भी उसे प्राप्त नहीं होते। कोई मनुष्य दुःख नहीं चाहता, अतः दुःख से बचने के लिये सदाचरण करना ही होगा। इस समस्त संसार और सभी प्राणियों को परमात्मा ने बनाया है। यह सब हमारे परिवार के अंग हैं। हमें गाय अथवा किसी भी प्राणी के प्रति हिंसा नहीं करनी है। इसके विपरीत हमें लाभकारी प्राणियों का पालन व रक्षा करनी है। यही मनुष्य धर्म है। जो इस धर्म के विरुद्ध बातें हैं, उनका हमें त्याग कर देना चाहिये। शास्त्रों में अहिंसा व प्राणियों की रक्षा को धर्म कहा गया है। अतः इस सिद्धान्त को हृदय में स्थिर कर हमें गो आदि लाभकारी पशुओं की रक्षा व पालन दोनों करना है। इतिहास को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि योगेश्वर कृष्ण भी गोपालक व गोरक्षक थे। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पूर्व महाराज रघु आदि भी गोरक्षक थे। इन महापुरुषों में जो अद्भुद ज्ञान व शक्तियां थी, उन्नत बुद्धि थी और उनके जो अलौकिकता से युक्त कार्य थे, उसमें अनेक कारणों के अतिरिक्त एक कारण उनका गोरक्षा, गोपालन सहित गोदुग्ध का पान करना भी था।
गोरक्षा व गोपालन के महत्व पर स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने 'गो की पुकार' नाम से एक अति महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। यह पुस्तक ऋषि दयानन्द की गोकरुणानिधि पुस्तक की व्याख्या है। पं0 प्रकाशवीर शास्त्री जी ने भी 'गो हत्या राष्ट्र हत्या' नाम से एक पुस्तक लिखी है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं लाभकारी है। आर्य विद्वान डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री ने भी 'गोरक्षा-राष्ट्ररक्षा' नाम से एक पुस्तक लिखी है जिसमें महत्वपूर्ण जानकारियां हैं। इन पुस्तकों को पढ़कर गोदुग्ध, गोरक्षा व गोपालन का महत्व विदित हो जाता है। गोपालन व गोदुग्ध के सेवन से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ एवं दीर्घायु होता है और उसके बहुत से रोग, साध्य एवं असाध्य, दूर होते हैं। अतः सभी को गोरक्षा के कार्य में अपनी भूमिका निभानी चाहिये। इससे हमारा यह जीवन और परजन्म भी सुखी व कल्याण को प्राप्त होंगे। ओ३म् शम्।
वैदिक धर्म और संस्कृति गायों की रक्षा, उनका पालन और माता के समान उनकी सेवा करने की है. गायों से दूर होना सुख समृद्धि और परजन्मों में सुखों से दूर होना है.
-मनमोहन कुमार आर्य
"समीक्षा न्यूज" is the place where you will find all types of samikshanews & samiksha news & sameekshanews for beginners. If you are interested in samiksha newspaper then this Blog is for you.
Sunday 25 August 2019
“गोरक्षा व गोपालन मानवीय कार्य होने से वैदिक धर्म का अंग है”
-
गाजियाबाद। महात्मा गांधी सभागार, कलैक्ट्रेट में जनपद स्तर पर प्राप्त जाति से सम्बन्धित शिकायतों के सत्यापन / सुनवाई हेतु जनपद स्तर पर गठित ज...
-
समीक्षा न्यूज नेटवर्क गाजियाबाद। वरिष्ठ समाजसेवी और उत्तर प्रदेश कांग्रेस सेवादल के प्रदेश कोषाध्यक्ष ऋषभ राणा ने हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी ...
-
माननीय राज्यपाल महोदया श्रीमती आनंदीबेन पटेल द्वारा किया गया ग्राम मोरटी, ब्लॉक रजापुर, विधानसभा मुरादनगर, जनपद गाजियाबाद में देश की प्रथम ए...
No comments:
Post a Comment