“ईश्वर के साथ हमारा पिता-पुत्र संबंध होने के कारण हमें उसके सभी श्रेष्ठ गुणों को धारण करना है”
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मनुष्य सत्य व चेतन स्वभाव से युक्त प्राणी है। सत्य का अर्थ है कि मनुष्य की सत्ता यथार्थ है। आत्मा की सत्ता काल्पनिक सत्ता नहीं है। चेतन का अर्थ है कि ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने की सामथ्र्य से युक्त अल्पज्ञ सत्ता है। आत्मा सुख व दुःख का अनुभव करता है। जड़ पदार्थों की तरह से मनुष्य व प्राणियों की आत्मा संवेदनाओं से रहित नहीं है। मनुष्य की आत्मा संसार में कब व कहां से आयी? इस प्रश्न का उत्तर है कि जीवात्मा का अस्तित्व सदा से है। इसका आरम्भ नहीं है। आत्मा अनादि व नित्य सत्ता है। हमारे जैसी ही संसार में असंख्य व अनन्त आत्मायें हैं। हम संसार में जितने मनुष्य, इतर पशु-पक्षी व कीड़े मकोडे आदि प्राणियों को देखते हैं, उन सब में भी हमारे ही समान आत्मायें है परन्तु हममें और उनमें कर्मों व ज्ञान का अन्तर होने से परमात्मा ने उन्हें उनके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म दिया है। संसार में शुभ, श्रेष्ठ व पुण्य कर्म करने से जीवात्मा की उन्नति होती है और उसे मृत्यु के बाद श्रेष्ठ जन्म मिलता है। इसी प्रकार से अशुभ व पाप कर्म करने पर मनुष्य की अवनति व पतन होता है जिसके दण्ड स्वरूप परमात्मा उसे निम्न अवस्थाओं मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में भेजता है।
हम चेतन सत्ता होने से ज्ञान एवं कर्म की सामथ्र्य रखते हैं और इससे ईश्वर को जानकर अपने सभी दुःख व क्लेश दूर कर जन्म व मरण के बन्धन व दुःखों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। इसके लिये हमें ईश्वर, जीवात्मा और संसार को जानना होगा। इसका उपाय वेद और वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन, वैदिक विद्वानों की संगति तथा योगाभ्यास आदि कार्य हैं। सन्ध्या व अग्निहोत्र-देव-यज्ञ को करने से भी मनुष्य ईश्वर की निकटता व सान्निध्य को प्राप्त करता है। यह कार्य मनुष्य को ईश्वर से जोड़ते व उसके अनुकूल कर्मों का कर्ता वा आचारवान बनाते हैं। यही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता व उन्नति कही व मानी जाती है और वस्तुतः है भी। आजकल लोग स्कूली ज्ञान प्राप्त कर डाक्टर, इंजीनियर, सरकारी कर्मचारी, बिजीनेस मैन तथा राजनीतिककर्मी बन जाते हैं परन्तु इससे होता क्या है? मनुष्य कुछ समाजसेवा के कार्य करता है और धनोपार्जन कर सुख सुविधाओं का संग्रह करता है। वह ऐसा करते हुए सुखों का भोग कर व अपने परिवारजनों को कराकर अनेक द्वन्द्वों में घिर कर रोगी हो जाता और मर जाता है। ऐसा व्यक्ति अधिकांश स्थितियों में ईश्वर व आत्मा को नहीं जान पाता और इस बात से भी अनभिज्ञ रहता है कि मृत्यु के बाद उसकी आत्मा की क्या गति होगी? उसे मनुष्य आदि श्रेष्ठ योनियों में जन्म मिलेगा या नहीं और अपने कर्मानुसार वह पशु पक्षी आदि दुःखों से युक्त योनियों में जाकर अपने कर्मों आदि का फल भोगेगा? अतः सभी मनुष्यों को अपने जन्म के कारण और मृत्यु के बाद मिलने वाले सुख-दुख एवं जन्मों के विषय में भी अवश्य विचार करना चाहिये और इनके उत्तर प्राप्त करने चाहिये। इन सभी बातों का ज्ञान एक ही पुस्तक सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर हो जाता है। अतः संसार के प्रत्येक मनुष्य वा स्त्री-पुरुष को अपने मत, मजहब व सम्प्रदाय से ऊपर उठकर सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन अवश्य करना चाहिये।
हम सभी मनुष्य व प्राणी जीवात्मायें हैं जो अपने पूर्वजन्म व इस जन्म के कुछ कर्मों का भोग कर रहे हैं और अवशिष्ट कर्मों का जीवन के शेष भाग और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म में भोग करेंगे। हमें अपनी आत्मा और परमात्मा के स्वरूप, इनके गुणों, कर्मों व स्वभाव आदि प्रश्नों पर विचार करना चाहिये और उनके सत्य उत्तर प्राप्त करने चाहिये। विचार करने पर हमें यह ज्ञात होता है कि ईश्वर हमारा माता व पिता दोनों है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपने सच्चे व अनादि तथा अनन्त काल तक के साथी परमात्मा के गुणों को जाने और उन्हें जीवन में धारण कर उसका सच्चा पुत्र कहलाने के अधिकारी बने। क्या हमने कभी विचार किया है कि हम ईश्वर के पुत्र, मित्र, बन्धु, सखा व सेवक हैं और हमें अपने इन सम्बन्धों के अनुरूप गुणों को धारण करते हुए इनसे जुड़े कर्तव्यों व व्यवहारों का करना व पालन करना है? अधिकांश लोग इन प्रश्नों पर विचार ही नहीं करते और न ही ईश्वर से अपने इन सम्बन्धों के अनुरूप पालन व व्यवहार ही करते हैं जिसका परिणाम वर्तमान व भविष्य में दुःखों से ग्रसित रहना है। जीवन में दुःख आते ही इसलिये हैं कि हम अपने सभी कर्तव्यों का उचित रीति से पालन नहीं करते। हमारा अधिकांश समय धन कमाने व सुख-सुविधाओं का भोग करने में व्यतीत हो जाता है। धन कमाना व सुख भोगना मनुष्य के लिये उचित है परन्तु मर्यादा व सीमा के अन्दर। यदि हम सीमा से बाहर जाकर धन कमाते और सुख भोग में ही अपना अधिकांश समय लगाते हैं तो यह जीवन मनुष्य अर्थात् मननशील प्राणी का जीवन नहीं है। मनुष्य जीवन में कर्तव्य पालन का विशेष महत्व होता है। हमें ईश्वर के प्रति, देश व समाज के प्रति, अपने माता-पिता-आचार्यों व परिवारजनों के प्रति भी अपने कर्तव्यों को निभाना होता है। यदि इन सबमें सन्तुलन बना होता है और हम ऐसा कोई कार्य नहीं करते जो वेदों में निषिद्ध है और जिससे देश व समाज को किसी प्रकार से हानि पहुंचती है और साथ ही अन्याय एवं पक्षपात होता है तो हमारा जीवन अच्छा व प्रशंसनीय जीवन कहा जा सकता है।
हम ईश्वर के पुत्र हैं। अथर्ववेद में 20/108/2 मन्त्र आता है 'त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ। अधा ते सुम्नमीमहे।।' इस वेदमन्त्र में ईश्वर को माता व पिता दोनों कहा गया है और बताया गया है कि निश्चय ही ईश्वर हम सबका माता व पिता है और हम उसके पुत्र-पुत्रियां व सन्तानें हैं। यजुर्वेद 36.9 मन्त्र 'शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नो भवत्वर्यमा' में कहा गया है कि ईश्वर हमारा सच्चा मित्र, वरणीय विद्वान तथा न्यायाधीश है। एक सामान्य प्रार्थना है जो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं जिसका वाचन सभी पौराणिक बन्धु भी ईश्वर की उपासना व आरती आदि करते समय गाते हैं। वह है 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।।' इसमें कहा गया है कि ईश्वर मेरा माता, पिता, बन्धु, सखा, विद्या, धन, सर्वस्व तथा इष्टदेव है। इन प्रमाणों से ईश्वर हमारा पिता व माता तथा हम उसके पुत्र-पुत्रियां सिद्ध होते हैं। क्या वस्तुतः हम उसके पुत्र कहलाने के योग्य हैं? क्या हम गुण, कर्म व स्वभाव में अपने पिता परमात्मा के समान हैं? निश्चय ही नहीं है। अब प्रश्न होता है कि क्या हम ईश्वर का पुत्र बनने के लिये प्रयासरत हैं और सही दिशा में बढ़ रहे हैं? क्या हमने अपने सभी दुर्गुण व दुव्यसनों का त्याग कर दिया है और सभी श्रेष्ठ गुणों व कर्मों को ग्रहण व धारण करने का संकल्प ले लिया है और उस संकल्प के अनुसार जीवन व्यतीत कर रहे हैं? हम प्रायः सभी लोग इसका पालन नहीं करते। अतः हम ईश्वर के पुत्र नहीं कहला सकते। हमें यदि ईश्वर का पुत्र बनना है, जो कि हम हैं, तो हमें ईश्वर के सभी श्रेष्ठ गुणों को धारण करना ही होगा। इसके लिये ईश्वरीय ज्ञान वेद व उसके व्याख्या ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन व मनन कर उसमें प्रकाशित वैदिक गुणों को धारण करना होगा। हमें सन्ध्या व देवयज्ञ सहित पंच महायज्ञों का अनुष्ठान भी विधि-विधान के अनुसार करना होगा। यदि हम ऐसा करेंगे तो हमें इससे सुख, आनन्द तथा आत्मा की उन्नति का लाभ होने सहित मोक्ष की उपलब्धि होगी अन्यथा नहीं।
हम समाज में देखते हैं कि माता-पिता अपनी सन्तानों को शिक्षा देकर उन्हें अपने से भी अधिक ज्ञानवान एवं सम्मानित व्यक्ति बनाना चाहते है व इसके लिये घोर तप, पुरुषार्थ करने सहित त्यांग व बलिदान का परिचय देते हैं। बाद में यही सन्तानें माता-पिता बनकर इस प्रक्रिया को जारी रखते हैं। अतः हमें इस उदाहरण के अनुसार ही अपने सनातन माता व पिता ईश्वर को जानकर उसका श्रेष्ठ पुत्र-पुत्री बनने का प्रयत्न करना है। ईश्वर से हमारा व्याप्य-व्यापक व स्वामी-सेवक सम्बन्ध भी है। हमें जब कभी कोई शंका या जिज्ञासा हो तो हम ईश्वर का अपनी आत्मा में ध्यान व चिन्तन कर मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर सद्कर्मों का प्रेरक है। वह हमारी आत्मा में सद्प्रेरणायें करता रहता है। हमें उन प्रेरणाओं को जानकर उसके अनुसार आचरण करना है। हम ईश्वर के गुणों, कर्मों व स्भाव को धारण करके उसके योग्यतम पुत्र बने जैसे हमारे सभी ऋषि-मुनि-योगी, राम, कृष्ण व दयानन्द आदि थे। यही इस लेख को लिखने का प्रयोजन है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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