मनुष्य वा इसकी आत्मा एक यात्री के समान हैं जो किसी लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए अपने वर्तमान जन्म व जीवन में यहां तक पहुंची हैं। मनुष्यों की अनेक श्रेणियां होती हैं। कुछ ज्ञानी व बुद्धिमान होते हैं। वह अपने सब काम सोच विचार कर तथा विद्वानों की सम्मति सहित ऋषियों व विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन कर निर्धारित करते हैं। ऐसे लोगों को ही अपने लक्ष्य व उसके प्राप्ति के साधनों का ज्ञान हो पाता है। जो व्यक्ति इन्हें जानने के प्रति सावधान नहीं होते वह लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते। जो मनुष्य कुसंगति, अज्ञानी तथा छली मार्गदर्शकों के भ्रमजाल में न फंस कर सच्चे विद्वानों की शरण को प्राप्त होकर अपने जीवन व लक्ष्य के प्रति उनसे शंका समाधान कर उनके द्वारा बताये गये साधनों का आचरण करते हैं, वह लक्ष्य की ओर अवश्य ही बढ़ते हैं। ऐसे मनुष्यों का लक्ष्य दिन प्रतिदिन निकट से निकटतर होता जाता है। हमारा सबसे बड़ा मित्र, आचार्य व गुरु हमारा सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य, अनन्त परमेश्वर है। वह अन्तर्यामी रूप से सदा हमारी आत्मा के भीतर विद्यमान रहकर हमारा मार्गदर्शन करता है। इसके लिये हमें अपनी ओर से भी सत्पुरुषों की संगति, सत्ग्रन्थ वेद व वैदिक साहित्य का स्वाध्याय, इनके चिन्तन व मनन सहित ध्यान, जप व यज्ञादि कर्म करने होते हैं। यह कार्य हमें अपने जीवन लक्ष्य सहित सुख व शान्ति की ओर ले जाते हैं और हमारा परम आनन्दमय लक्ष्य मोक्ष निकट व निकटतर होता जाता है। वेद, शास्त्र व हमारे सभी ऋषि मुनियों ने हमारी आत्मा सहित हमारे जीवन का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति सहित परम लक्ष्य के रूप में मोक्ष को बताया है। इन्हें प्राप्त करने के लिये ही परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में हमें वेदज्ञान दिया तथा परमात्मा को जानने वाले सच्चे ज्ञानी पुरुषों ने वेदों की व्याख्याओं के द्वारा हमें हमारे कर्तव्यों व लक्ष्य प्राप्ति के साधनों को बताया है। वर्तमान समय में हमें सरलता से धर्म व मोक्ष प्राप्ति के साधन तथा इससे सम्बन्धित समस्त ज्ञान प्राप्त है। महाभारत के बाद तथा ऋषि दयानन्द (1825-1883) के आने व प्रचार करने से पूर्व हमारे पूर्वजों व तत्कालीन मनुष्यों को धर्म व मोक्ष आदि के सत्यस्वरूप का ज्ञान नहीं था। ऋषि दयानन्द के मौखिक उपदेशात्मक प्रचार तथा उनके ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश”, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय तथा ऋग्वेद भाष्य आंशिक तथा यजुर्वेद भाष्य सम्पूर्ण से हमें धर्म व मोक्ष विषय की यथावत् जानकारी मिली है। इससे हमें अपने कर्तव्यों का बोध होता है और इसे अपनाकर ही मनुष्य का जीवन सफल होता है। वेद व वैदिक शास्त्र संसार के सभी मनुष्यों के लिये हैं। इसको जो जितना अपनायेगा व आचरण में लायेगा, उसका उतना ही शुभ, मंगल व कल्याण होगा। अतः हमें अपने हित व लाभों के लिये ही वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करते हुए वैदिक शिक्षाओं के अनुरूप आचरण करना है। यही सत्यधर्म है तथा जीवन के लक्ष्य धर्म व मोक्ष की प्राप्ति का प्रमुख व एकमात्र साधन है। यदि किसी कारण हमने अपने इस जीवन में इन कार्यों को न किया तो हमें वर्षों व अनेक जन्मों तक यह सुअवसर प्रदान होगा, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। मनुष्य को अपने वर्तमान समय का सदुपयोग कर उससे अपने प्राप्तव्य लक्ष्य को सुलभ करने का प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करना ही मनुष्य की बुद्धिमत्ता का द्योतक होता है। हमें अपने लाभ, हानि, हित व अहित का ध्यान करते हुए आज ही उचित निर्णय लेना चाहिये। कल क्या होगा, हम रहेंगे या नहीं, भविष्य में हमें सत्संगति व सत्प्रेरणा करने वाले मनुष्य मिलेंगे या नहीं, कहा नहीं जा सकता। इसलिये हमें अपने जीवन के हित की किसी बात की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। हमें अपने देश के सच्चे महापुरुषों के जीवनों पर दृष्टि डालनी चाहिये और उनके जीवन व कार्यों से प्रेरणा लेकर उनका ही अनुसरण व अनुकरण करना चाहिये। ऐसा करके ही हम अपने पूर्वजों के ज्ञान व अनुभवों का लाभ प्राप्त कर दुःखों से मुक्त होकर यशस्वी होंगे तथा धर्म आदि सहित मोक्ष की प्राप्ति में भी सफल हो सकते हैं। हम जब किसी दूरस्थ स्थान की यात्रा पर जाते हैं तो हमें वहां की आवश्यकताओं के अनुरूप तैयारी करनी होती है। हम अपने वस्त्र व भोजन विषयक कुछ सामग्री तथा अन्य आवश्यक सामान साथ में रखते हैं। धन से प्रायः अधिकांश व सभी वस्तुयें प्राप्त होती हैं, इसलिये प्रचुर मात्रा में धन भी साथ ले जाते हैं। प्रवास में रहने के लिये होटल व स्थान भी आरक्षित कराते हैं। ऐसा भी होता है कि हम अपने प्रियजनों को यात्रा में साथ ले जायें। इसका कारण यह है सामूहिक सुख में जो आनन्द आता है वह अकेले सुख भोग में नहीं होता। ऐसा करने से हमें यात्रा व जीवन में सुख मिलता है तथा दुःख न होने की सम्भावना बनती है। इसी प्रकार से हम अनादि काल से अपनी आत्मा को यात्रा करा रहे हैं। नये नये जन्मों में हमारी आत्मा के प्रवास स्थान बहलते रहते हैं। जो पूर्वजन्मों में स्थान थे वह इस जन्म में नहीं हैं और जो प्रवासी स्थान परजन्मों में होंगे वह वर्तमान से सर्वथा भिन्न होंगे। हमारे जन्म व मरण निरन्तर होते रहते हैं व होते रहेंगे। इसका प्रमुख कारण ईश्वर व आत्मा का अविनाशी होना है। अनादि काल से अब तक अनन्त बार हमारे जन्म व मरण हो चुके हैं। यह क्रम आगे भी अनन्त काल तक जारी रहना है। अतः हमें इसी जीवन में अभी अपने जीवन के सबसे सुखद व आनन्ददायक स्थान व लक्ष्य का चयन कर उसी ओर जाने की तैयारी करनी चाहिये। यह सुखद व आनन्द दायक स्थान सभी मनुष्यों के लिये ईश्वर का सान्निध्य एवं मोक्ष वा मुक्ति की अवस्था है। इसी का उल्लेख हमारे सत्य शास्त्रों में मिलता है। इसी पथ पर हमारे विद्वान पूर्वज चले थे। उन्होंने ही नहीं अपितु परमात्मा ने भी हमें बताया है कि सद्कर्मों, परोपकार, जप, यज्ञ, उपासना आदि को करके मृत्यु को पार करो तथा विद्या व शुद्ध सद्ज्ञान से मोक्ष अर्थात् जन्म व मरण से रहित व जन्म व मरण से छुड़ाने वाले ईश्वर को प्राप्त हो। इसी लक्ष्य को हमें प्राप्त करना है तथा उस पर पहुंचना है। इस ‘मोक्ष’ नामक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ही हमारे ऋषियों ने ईश्वरीय ज्ञान वेद के आधार पर पंचमहायज्ञों का विधान किया है। इन सभी यज्ञों को हमें निष्ठा व श्रद्धापूर्वक करना है। इनको करने से हमारी आत्मा पतन से बचेगी और इसके विपरीत आत्मा को ज्ञान व विद्या की प्राप्ति होकर आत्मोन्नति होगी। आत्मोन्नति ही मनुष्य की उन्नति व उत्कर्ष का प्रमुख साधन है। ऐसा करने पर हमें कभी किसी प्रकार का दुःख नहीं होगा। इन कार्यों को करके मानसिक व आत्मिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है। ऐसा होने पर हमारी यात्रा सुखद व मुक्ति के मुख्य लक्ष्य को प्राप्त होकर सफल होगी। इसके विपरीत जीवन में भौतिक पदार्थों व धन आदि का संचय कर हम जो भौतिक सुख प्राप्त करते हैं उनके साथ अनेक प्रकार के दुःख व रोगादि जुड़े होते हैं। अधिक भोजन करने से हानि होती है। अधिक धन की रक्षा करना भी कठिन होता है। इसके साथ ही हमें धन प्राप्ति आदि में कई प्रकार से अकरणीय कर्मों को करना पड़ता है जिसका फल दुःख के रूप में ईश्वर से प्राप्त होता है। अतः जीवन में लोभ रहित होकर मनुष्य को सात्विक कर्म ही करने चाहियें जिससे अधिक सुख-भोग व भोग से होने वाले रोग एवं अन्य दुःखों से बचा जा सके। दुःखों से बचने के लिये वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित पंचमहायज्ञों से युक्त जीवन ही निरापद व चिर आनन्द की प्राप्ति को कराने वाला होता है। मनुष्य जीवन में हमें अपने वर्तमान व भविष्य को दुःखों से रहित व सुख व आनन्द से पूरित करने के उपायोें को जानने व उन्हें करने के कार्य को प्राथमिकता देनी चाहिये। इसमें विलम्ब करना उचित नहीं है। यह उपाय वैदिक धर्म को ग्रहण कर उसके अनुसार जीवन व्यतीत करना ही सिद्ध होता है। सत्य मान्यताओं व सिद्धन्तों का ज्ञान तथा उनका पालन ही वैदिक धर्म है। सत्याचरण ही धर्म है तथा इसके विपरीत किये जाने वाले सभी काम अधर्म होते हैं। मांसाहार, प्राणी हिंसा तथा दूसरों को अकारण दुःख देना आदि कार्य मनुष्य के कर्तव्य न होकर अकर्तव्य व अधर्म की कोटि में आते हैं। संसार में अविद्या से युक्त एक ही मत है और वह है वैदिक मत वा धर्म। इसे समझने का प्रयत्न कर इसी को ग्रहण व धारण करना विवेकी पुरुषों का कार्य है। इसी कारण ऋषि दयानन्द ने अविद्यादि दोषों से युक्त मान्यताओं व सिद्धान्तों को मानना छोड़ दिया था और जो सत्य सिद्धान्त उन्हें वेद व वैदिक साहित्य से प्राप्त हुए थे, उनकी सत्यता की परीक्षा व पुष्टि कर उन्होंने उन्हें अपनाया था। वह अपना सभी ज्ञान व अनुभव हमें सत्यार्थप्रकाश तथा वेदभाष्य आदि ग्रन्थों को लिखकर हमें प्रदान कर गये हैं। इमें निष्पक्ष होकर उनके जीवन व ग्रन्थों का अध्ययन व मनन करना है। सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना है। इसके साथ ही देश, समाज व संसार का उपकार व कल्याण करना है। इन्हीं कर्मों में जीवन की सफलता का रहस्य छिपा हुआ है। इन सब कर्तव्यों को करते हुए हम अपने जीवन की इस यात्रा को इसके लक्ष्य ‘मोक्ष’ के निकट व मोक्ष तक पहुंचा सकेंगे।
-मनमोहन कुमार आर्य
Comments
Post a Comment