वेद एवं वैदिक साहित्य में ब्रह्मचर्य की चर्चा मिलती है। प्राचीन काल में मनुष्य जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया था। प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम कहलाता था। इसके बाद गृहस्थ आश्रम का स्थान था। ब्रह्मचर्य आश्रम जन्म से 25 वर्ष की आयु तक मुख्य रूप से माना जाता है परन्तु ब्रह्मचर्य का पालन मनुष्य को मृत्युपर्यन्त करने का विधान है। शास्त्रों में ब्रह्मचर्य की बड़ी महिमा गाई गई है। यहां तक कहा गया है ब्रह्मचर्य रुपी तप के पालन से राजा राष्ट्र की भली प्रकार से रक्षा कर सकता है। ब्रह्मचर्य के पालन से यवुती अपने सदृश युवा पति को प्राप्ती करती है। ब्रह्मचर्य का पालन योगदर्शन में भी आवश्यक कहा गया है। ब्रह्मचर्य को पाचं यमों में सम्मिलित किया गया है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन नही करता उसका योग सफल नहीं होता। मनुष्य को स्वस्थ रहने, शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति करने के लिये ब्रह्मचर्य पालन की महती आवश्यकता होती है। ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य का शरीर स्वस्थ, निरोग, बलवान, विद्या ग्रहण करने की क्षमताओं से युक्त, दीर्घायु तथा यशस्वी बनता है। ब्रह्मचर्य के पालन से ही मनुष्य व देव मृत्यु रूपी दुःख को सहजता से पार होकर ब्रह्मलोक व मोक्ष को प्राप्त होकर जन्म व मरण के बन्धनों से छूट जाते हैं। ब्रह्मचर्य की महिमा अपरम्पार है। विदेशी विधर्मियों व पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव तथा वैदिक धर्म की विशेषताओं से दूर होने के कारण मनुष्य ब्रह्मचर्य जैसी अमृतमय महौषधि से दूर हो गया है जिसका परिणाम हम अल्पायु में नाना प्रकार के रोगों व अकाल मृत्यु के रूप में पाते हैं। शरीर को स्वस्थ रखने तथा विश्व में भारत को गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के लिए हमें ब्रह्मचर्य की उपेक्षा छोड़कर इसके यथार्थ महत्व को जानकर इसका सेवन करना होगा जिससे मनुष्य को वह सुख प्राप्त होगा जो साधरणतया आधुनिक व भौतिक जीवन जीने वाले मनुष्यों को प्राप्त नहीं होता।
ब्रह्मचर्य ब्रह्म अर्थात् ईश्वर में अपनी आत्मा में लगाने व उसमें ही अवस्थित रहने को कहते हैं। ब्रह्म इस संसार को उत्पन्न करने तथा पालन करने वाली शक्ति है और इसी के द्वारा सृष्टि की अवधि पूरी होने पर प्रलय भी की जाती है। इस सृष्टि की आधेय शक्ति ब्रह्म सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि व नित्य है। उस ब्रह्म को उसके यथार्थस्वरूप में जानना सभी मनुष्यों का प्रथम कर्तव्य है। ब्रह्म को धार्मिक व ज्ञानी माता-पिताओं सहित आचार्यों के उपदेशों से जाना जाता है। वेद एवं वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय से भी ब्रह्म अर्थात् ईश्वर को जाना जाता है। आर्य विद्वानों ने ईश्वर विषय पर अनेक उत्तम ग्रन्थों की रचना की है। उन ग्रन्थों को पढ़कर ब्रह्म को जाना जा सकता है। ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश, इसका प्रथम व सप्तम् अध्याय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, ऋषि दयानन्द एवं आर्य विद्वानों के वेदभाष्य, आर्य विद्वानों के ग्रन्थ स्वाध्याय-सन्दोह, वेदमंजरी, श्रुति-सौरभ, वैदिक विनय आदि भी ईश्वर विषयक ज्ञान में सहायक हैं। ईश्वर को जानकर मनुष्य ईश्वर का उपासक बनता है। सद्ज्ञान व उपासना से ही मनुष्य अपनी इच्छाओं को नियंत्रित कर उन्हें सन्मार्ग पर चलाता है जिससे वह इन्द्रियों के अनेक दोषों व उनके हानिकारक प्रभावों से बच जाता है। ब्रह्मचर्य संयम को भी कहते हैं। सभी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखना ब्रह्मचर्य होता है। अपनी सभी इन्द्रियों को संयम वा नियंत्रण में रखना और उन्हें मर्यादा के अनुसार चलाना व उनका उपयोग लेना ब्रह्मचर्य ही है। ब्रह्मचर्य में हम अपनी पांच ज्ञान व पांच कर्म इन्दियों का अपने शरीर व आत्मा की उन्नति के लिये उपयेाग करते हैं। उनका दुरुपयोग किंचित नहीं होने देते। यह भी ब्रह्मचर्य ही है। ब्रह्मचर्य पालन से शरीर में शक्ति का जो संचय होता है उसी से मनुष्य स्वाध्याय व साधना पर चल कर ईश्वर को जान पाता है और इसी से वह जीवन के लक्ष्य ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल होता है। यही जीवन मार्ग हमें वेदाध्ययन तथा ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर विदित होता है। स्वाध्याय एवं उपासना करना ब्रह्मचर्य से युक्त जीवन के आधार है। इससे मनुष्य के जीवन की रक्षा सहित ज्ञान व बल की उन्नति होती है। ब्रह्मचर्य की इन कुछ विशेषताओं के कारण ही रामायणकाल में हनुमान जी, महाभारत काल में भीष्म पितामह तथा आधुनिक काल में ऋषि दयानन्द ने ब्रह्मचर्य का सेवन कर अनेक महत्वपूर्ण महान कार्यों को सम्पादित किया। यदि यह महान आत्मायें ब्रह्मचर्य का पालन करने वाली न होती तो इनके जीवन की जिन उपलब्धियों पर सभ्य संसार गौरव करता है, वह शायद इनके जीवन में न होती।
महर्षि दयानन्द के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो उनका जीवन अनेक महान कार्यों को सम्पादित करने वाला अपूर्व जीवन दृष्टिगोचर होता है। वह ऐसे महापुरुष थे जिनके समान विश्व में अब तक कोई महापुरुष उत्पन्न नहीं हुआ। सभी महापुरुषों ने अपने समय में अनेक महान कार्यों को किया परन्तु जिन चुनौतियों का ऋषि दयानन्द को सामना करना पड़ा, वैसी चुनौतियां अन्य महापुरुषों के जीवन में देखने को नही मिलती। ऋषि दयानन्द के समय में वैदिक धर्म एवं संस्कृति अधोगति को प्राप्त थी। देश की स्वतन्त्रता विधर्मियों ने वैदिक धर्म में आयी विकृतियों के कारण छीन ली थी। हम पर शताब्दियों से नारकीय अत्याचार किये जा रहे थे। ऐसा कोई महापुरुष उत्पन्न नहीं हुआ जो हमें इन आघातों से बचाता। ऐसे समय में ऋषि दयानन्द (1825-1883) का प्रादुर्भाव हुआ था। उन्होंने संसार में फैली हुई अविद्या का अध्ययन किया था। इसके कारण व समाधान ढूंढने में भी उन्हें सफलता मिली थी। उन्होंने पाया था कि वेदाध्ययन में जो बाधायें आयी हैं उन्हीं से देश व विश्व अविद्या फैली है और अन्याय, पक्षपात, शोषण, अत्याचार व अन्य अन्धविश्वास व कुरीतियां समाज में फैली हैं। यही मनुष्य जाति की अधोगति का कारण बनी हैं। इन्हें दूर करने के लिये ऋषि दयानन्द ने सृष्टि की आदि में ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान का देश देशान्तर में प्रचार किया। इससे अविद्या के बादल छंटे थे। हिन्दू जाति का विभिन्न अवैदिक मतों द्वारा किया जाने वाला धर्मान्तरण वा मतान्तरण रूका था अथवा कम हुआ था। उनके अभियान से देश व समाज उन्नति को प्राप्त हुआ। देश को स्वतन्त्रता प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर करने की प्रेरणा भी ऋषि दयानन्द की ही देन है। देश से अविद्या को दूर कर उसे विद्या व ज्ञान से युक्त करने का स्वप्न भी ऋषि ने देखा था तथा अविद्या व अज्ञान को दूर करने के लिये गुरुकुलीय शिक्षा का प्रचलन करने की प्रेरणा भी उन्होंने की थी जिसका उनके अनुयायियों ने पालन किया। इस कारण से आज हमारे पास वेद एवं वैदिक साहित्य के शताधिक व सहस्रों विद्वान है। आधुनिक शिक्षा के लिये भी आर्यसमाज ने डीएवी स्कूल व कालेज खोल कर देश को उन्नत करने का महनीय कार्य किया है।
ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में समाज कल्याण तथा देशोन्नति सहित ईश्वर की उपासना के क्षेत्र में जिन अविद्यायुक्त कृत्यों का प्रकाश कर उपासना की सत्य विधि का प्रकाश किया उसके पीछे ऋषि दयानन्द का ब्रह्मचर्य से युक्त जीवन ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। यदि ऋषि दयानन्द आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन न करते तो जो उलब्धियां उन्हें अपने जीवन में प्राप्त हुई तथा जो उपलब्धियां देश को प्राप्त हुई हैं वह कदापि नहीं होती। उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ज्ञान प्राप्ति, ईश्वर प्राप्ति तथा समाज सुधार के क्षेत्र में जो पुरुषार्थ किया, वह उनके ब्रह्मचर्य रूपी तप की ही देन थी। जीवन में सबसे बड़ा तप यदि कोई है तो वह ब्रह्मचर्य ही है। इस व्रत का जीवन भर पालन करना अत्यन्त कठिन एवं प्रायः असम्भव ही है। इसी तप व व्रत का ऋषि दयानन्द ने सफलतापूर्वक आजीवन पालन किया था। एक बार उनसे पूछा गया कि क्या आपके मन में काम विषयक विचार कभी नहीं आये? इस प्रश्न को सुनकर ऋषि दयानन्द मौन हो गये थे। कुछ दूर बाद अपने पूरे जीवन पर दृष्टि डालकर उन्होंने कहा था कि वह जीवन भर ईश्वर के चिन्तन, विद्या के अर्जन व प्रचार के कामों में इतने व्यस्त रहे कि काम का विचार उनके मन में कभी उत्पन्न नहीं हुआ। यदि काम ने कभी उनके निकट आने की चेष्टा की भी होगी तो वह द्वार पर खड़ा अवकाश मिलने की प्रतीक्षा करता रहा होगा। ऐसा अवसर न मिलने पर वह स्वयं लौट गया होगा। ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा करने वाले युवाओं व स्त्री-पुरुष सभी को पं. लेखराम, स्वामी सत्यानन्द, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय तथा डा. भवानीलाल भारतीय आदि आर्य विद्वानों द्वारा लिखित ऋषि दयानन्द के जीवन चरित अवश्य पढ़ने चाहियें। इससे उन्हें अनेक प्रेरणायें प्राप्त होगीं और उनका जीवन भी ऋषि दयानन्द की प्रेरणा से उन्नत, सफल व महान बनेगा।
ब्रह्मचर्य विषय पर प्रवर वैदिक विद्वान स्वामी ओमानन्द सरस्वती तथा डा. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार आदि ने विषयक केन्द्रित उच्च कोटि के ग्रन्थों का प्रणयन किया है। सभी बन्धुओं को इन ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। इन ग्रन्थों को पढ़कर ब्रह्मचर्य का सत्यस्वरूप व इनसे जीवन में होने वाले लाभों का ज्ञान प्राप्त होता है। इससे मनुष्य अनेक बुराईयों व पापों से बच जाता है। इसके परिणामस्वरूप उसे सुख व यश की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से ही सभी दुःखों की निवृत्तिरूप मोक्ष की प्राप्ति भी सम्भव होती है। अतः शरीर व आत्मा की उन्नति तथा दुःखों की निवृत्ति के लिये वैदिक मान्यताओं के अनुरूप ‘‘ब्रह्मचर्य” का पालन सभी को करना चाहिये। यह आश्चर्य है कि हमारा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान स्वास्थ्य एवं जीवन उन्नति के इस महान साधन की उपेक्षा करता रहा है और अब भी कर रहा है। किशार व युवा पीढ़ी को ब्रह्मचर्य का यथार्थ ज्ञान एवं महत्व विशेष रूप से विदित होना चाहिये। ब्रह्मचर्य के पालन से ही हमारे देश की युवापीढ़ी उन्नति को प्राप्त हागी जिससे देश, धर्म एवं मानवता की भी उन्नति होगी। ब्रह्मचर्य के पालन से जीवन अपने लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति की ओर बढ़ सकता है। इससे मनुष्य का परजन्म सुधरेगा और मृत्यु के समय में उद्विग्नता व पश्चाताप न होकर शान्ति होगी।
-मनमोहन कुमार आर्य
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