Thursday 10 September 2020

“मनुष्य की पूर्ण आत्मोन्नति वेदज्ञान एवं आचरण से ही सम्भव है”


मनुष्य का शरीर जड़ प्रकृति से बना होता है जिसमें एक सनातन, शाश्वत, अनादि, नित्य चेतन सत्ता जिसे आत्मा के नाम से जाना जाता है, निवास करती है। जीवात्मा को उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग कराने के लिये ही परमात्मा उसे जन्म व शरीर प्रदान करते हैं। शुभ व पुण्य कर्मों की अधिकता व पाप कर्मों की न्यूनता होने पर मनुष्य का जन्म मिलता है। यदि पाप कर्म अधिक हों तो मनुष्येतर पशु, पक्षी आदि नीच प्राणी योनियों में जीवात्मा का जन्म होता है। मनुष्य जन्म उभय योनि है जहां जीवात्मा पूर्व किये हुए कर्मों का फल भी भोक्ता है और नये कर्मों को करके आत्मा व जीवन की उन्नति भी करता है। शरीर की उन्नति तो शरीर को स्वस्थ व बलवान बनाने से होती है तथा आत्मा की उन्नति आत्मा की सामथ्र्य के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने व उसका आचरण करने से होती है। जिस सद्ज्ञान से आत्मा की उन्नति होती है, वह प्राप्त कहां से होता है? इसका उत्तर है कि आत्मा की उन्नति के लिए आवश्यक ज्ञान वेद व वेदानुकूल ऋषियों के ग्रन्थों से मिलता है। वेदों से ही विदित होता है कि यह संसार एक अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, अजन्मा, अजर, अमर सत्ता ‘‘परमात्मा” की कृति है। परमात्मा ने ही इस समस्त अपौरुषेय कार्य जगत को बनाया है। वही इस सृष्टि को चला रहा वा पालन कर रहा है। 
परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी सत्ता इस ब्रह्माण्ड में नहीं है जो सृष्टि की रचना वा उत्पत्ति, इसका पालन व इसकी प्रलय कर सके। ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण है तथा अनादि व नित्य त्रिगुणात्मक सूक्ष्म प्रकृति इस कार्य जगत का उपादान कारण है। तीसरी अनादि व नित्य सत्ता जीवात्मा है। जीवात्माओं को संख्या की दृष्टि से अनन्त कह सकते हैं। अनन्त का अर्थ जिसकी गणना अल्पज्ञ मनुष्य नहीं कर सकते परन्तु परमात्मा के ज्ञान की दृष्टि से जीवात्माओं की संख्या अनन्त न होकर गण्य व सीमित होती है। इस प्रकार परमात्मा अनादि जीवों को उनके पूर्वजन्म व पूर्व सृष्टि में उनके कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देने के लिये जीवों को जन्म देते हैं जिनका वह भोग नहीं कर पाये होते हैं। यह क्रम ही अनादि काल से चल रहा है जो सदैव चलता रहेगा अर्थात् इस सृष्टिक्रम का अन्त कभी नहीं होगा। इसीलिए सृष्टि को प्रवाह से अनादि कहा जाता है। सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय भी अनादि है। हम समय का विचार कर कितना भी पीछे की ओर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि करोड़ो, अरब, खरब व नील वर्षों व उससे भी अनन्त काल पहले इस सृष्टि का वर्तमान सृष्टि के समान अस्तित्व था। सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय का क्रम चलता रहता है। वह अनादि काल से चला आ रहा है। इस नाशवान व परिवर्तनशील सृष्टि को देखकर तथा जीवात्मा के जन्म व मृत्यु का विचार करने पर मनुष्य को वैराग्य होता है। वह विचार करने पर जान लेता है कि उसका जीवन आदि व अन्त से युक्त है। मनुष्य की आयु प्रायः एक सौ वर्ष से कम होती है। उसे इस अवधि में भी कभी किसी रोग, दुर्घटना एवं अन्य कारणों से मृत्यु का ग्रास बनना पड़ जाता है। हम कल जीवित रहेंगे या नहीं, किसी को पता नहीं अर्थात् निश्चित नहीं है। अतः सुख भोग का विचार त्याग कर आत्मा व परमात्मा को जानने व जन्म-मरण से बचने के उपाय करना ही मनुष्य का कर्तव्य निश्चित होता है। यह बात और है कि प्रायः सभी मनुष्य अपने इस कर्तव्य की उपेक्षा करते हैं तथापि कुछ पुण्य आत्मायें समय-समय पर उत्पन्न होती हैं जो सुख व भोग से युक्त जीवन का त्याग व उस पर नियंत्रण कर तप, त्याग व साधना का जीवन व्यतीत करते हुए ईश्वरोपासना आदि साधनों से ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न कर जन्म व मरणरूपी दुःखों से मुक्ति का प्रयत्न करती हैं। 
दुःखों की सर्वथा निवृत्ति एवं सुख व आनन्द की प्राप्ति के लिये मनुष्य को सद्ज्ञान की आवश्यकता होती है। बिना सद्ज्ञान के मनुष्य की आत्मा की उन्नति व आत्मा के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होना असम्भव है। यह सद्ज्ञान हमें परमात्मा से प्राप्त होता है। साधना द्वारा अपनी आत्मा को परमात्मा में लगाने, उसके गुणों का ध्यान करने तथा उसमें एकाकार होने पर हमें परमात्मा का साक्षात्कार होना सम्भव होता है। इसके लिये ऋषि पतंजलि जी ने योगदर्शन ग्रन्थ लिखा है। इसका अध्ययन व योग्य गुरुओं से उसका प्रशिक्षण लेकर यम, निमय, आसन, प्राणायाम, धारणा व ध्यान की विधि को जानकर व उसे आचरण द्वारा साध कर आत्मा व शरीर की उन्नति की जाती है। परमात्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान भी आत्मा की उन्नति में अनिवार्य है। ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेदों से ही प्राप्त होता है। वेदों के आधार पर ही ऋषियों ने उपनिषदों, दर्शनों, मनुस्मृति व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की रचना की है। इनके अध्ययन से भी ईश्वर व जीवात्मा सहित अनेक विषयों का ज्ञान होता है। अतः मनुष्य को वेदादि समस्त वेदानुकूल उपलब्ध साहित्य का अध्ययन कर अपना ज्ञान बढ़ाना चाहिये और सत्य ज्ञान के अनुरूप ही अपने आचरणों को करना चाहिये। ईश्वर व आत्मा का ज्ञान हो जाने पर यह विदित हो जाता है कि हमें ईश्वर के गुणों को अपने जीवन में धारण करना व उनका पोषण करना है। ईश्वर के गुणों को धारण कर उसके अनुरूप आचरण करना ही साधना है। साधना में ईश्वर की भक्ति का मुख्य स्थान है। इसके लिये वेद आदि सत्साहित्य के स्वाध्याय सहित ईश्वर के ध्यान की साधना करते हुए समाधि को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। सृष्टि के आरम्भ से हमारे ज्ञानी पूर्वज इसी कार्य को करते आये हैं। आधुनिक काल में भी अनेक महापुरुषों यथा स्वामी दयानन्द सरस्वती जी आदि ने ईश्वर व आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर के ध्यान द्वारा समाधि को प्राप्त किया था और वह जीवन के लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार को करने में सफल हुए थे। ईश्वर का साक्षात्कार करना ही जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य होता है। इसके बाद जीवनमुक्त अवस्था व्यतीत कर साधक मुमुक्षु को मोक्ष प्राप्त होकर उसका आत्मा सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है और ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द को प्राप्त होकर सुदीर्घकाल तक आनन्द का भोग करता है। मनुष्य की आत्मा की उन्नति करने व उसे समाधि, ईश्वर साक्षात्कार कराने सहित ब्रह्मलोक व मोक्ष तक पहुंचाना ही हमारे समस्त वेदादि साहित्य का उद्देश्य है। 
संसार में आध्यात्मिक ज्ञान की अनेक पुस्तकें हैं जिन्हें ज्ञानी व अल्प ज्ञानी मनुष्यों ने बनाया है। वेद ही सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से प्राप्त धर्म, अध्यात्म व सांसारिक ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थ है। मनुष्यकृत ग्रन्थों में जो अध्यात्मिक व सांसारिक ज्ञान है वह वेद ज्ञान की ही व्याख्या व विस्तार है। सभी मनुष्य वा महापुरुष अल्पज्ञ होते हैं। उनकी कोई भी रचना पूर्ण निर्दोष नहीं होती। वह सत्य व उपादेय तभी होती हैं जब वह वेदज्ञान के अनुकूल हों। वेद ईश्वर प्रदत्त होने से निभ्र्रान्त ज्ञान से युक्त ग्रन्थ हैं। अतः सभी मनुष्यों का वेदों की शरण में जाना आवश्यक है। वेदज्ञान के अध्ययन व धारण अर्थात् आचरण से ही मनुष्य की आत्मा की पूर्ण उन्नति होती है। वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों से इतर मनुष्यों द्वारा निर्मित जितने भी ग्रन्थ हैं वह सब अविद्याओं से युक्त है। इनका अध्ययन व आचरण करने से मनुष्य अविद्या से युक्त होकर जीवात्मा के लक्ष्य मोक्ष तक नहीं पहुंच सकते। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में वेदों का सत्यस्वरूप उपस्थित किया है। उन्होंने संसार में प्रचलित सभी मत-मतान्तरों की अविद्या से भी परिचित कराया है। अतः अविद्यारूपी तिमिर से बचने के लिये वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों यथा सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि की शरण में जाना आवश्यक है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से ही आत्मा का कलुष व अविद्या दूर होती है। मनुष्य की शारीरकि तथा आत्मिक उन्नति होती है। मनुष्य पूर्ण आयु को प्राप्त कर सुखपूर्वक जीवन व्यक्ति करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करता है। अतः मोक्ष की प्राप्ति हेतु आत्मा की उन्नति के लिये मनुष्य को वेदों का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। वेदाध्ययन का मार्ग ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन से होकर गुजरता है। हमें अपने जीवन को सफल करने अर्थात् शरीर व आत्मा की उन्नति करने के लिये उनके ग्रन्थों सहित समस्त वैदिक साहित्य से लाभ उठाना चाहिये।
-मनमोहन कुमार आर्य


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