Thursday 24 September 2020

“मुनष्य को वेदाध्ययन करने सहित ईश्वर का उपासक तथा सदाचारी होना चाहिये”


मनुष्य को परमात्मा ने बुद्धि दी है जिससे वह ज्ञान को प्राप्त होता है तथा सत्यासत्य का निर्णय करता है। मनुष्य को ज्ञान को प्राप्त करने जैसी बुद्धि प्राप्त है वैसी अन्य प्राणियों को नहीं है। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य की विशेषता अपनी बुद्धि के कारण ही होती है। जो मनुष्य अपनी बुद्धि को सद्ज्ञान प्राप्ति, अपने आचरणों की शुद्धि व परोपकार में लगाते हैं वह मनुष्य धन्य होते हैं। उन्हें आत्म-सन्तोष रूपी सुख के साथ जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त होती है। परमात्मा ने मनुष्यों पर सृष्टि के आरम्भ में ही कृपा करते हुए चार वेदों का ज्ञान दिया था जो समस्त विद्याओं से युक्त है। ईश्वर संसार का स्वामी, संसार का रचयिता, पालक तथा इसका प्रलयकर्ता है। ईश्वर सत्य है और वह सच्चिदानन्दस्वरूप है। ईश्वर निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता, जीवों का प्रेरक, उनके शुभाशुभ कर्मों का फल प्रदाता, वेदाज्ञान का दाता, उपासक को अपने स्वरूप का प्रत्यक्ष कराने वाला, सत्पुरुषों को सुख तथा पापियों को दुःख देनेवाला वा रुलाने वाला है। आत्मा भी एक चेतन व स्वअल्प परिमाण वाला ईश्वर से पृथक पदार्थ वा सत्ता है। यह अल्पज्ञ, एकदेशी, अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, जन्म मरण धर्मा, शुभाशुभ वा पाप-पुण्य कर्मों का करता तथा उनका जन्म-जन्मान्तर लेकर अपने किये हुए कर्मों का फलों का भोक्ता है। प्रकृति जड़ पदार्थ व सत्ता है। यह भी अनादि व सनातन है। यह सदा रहने वाली सत्ता है। इस सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति से ही परमात्मा ने ज्ञान, विज्ञान व निज बल का प्रयोग कर इस सृष्टि वा ब्रह्माण्ड को रचा है। 
ईश्वर, जीव व सृष्टि का अस्तित्व सदा से है और सदा रहेगा। इनका अभाव व नाश कभी नहीं होगा। सृष्टि की रचना, भोग काल तथा प्रलय के बाद पुनः सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय का क्रम जारी रहता है। परमात्मा इस सृष्टि को जीवों के भोग व अपवर्ग के लिये बनाते हैं। भोग का अर्थ जीवों का अपने किये हुए शुभ व अशुभ कर्मों का सुख व दुःख रूपी फलों को भोगना है तथा अपवर्ग जन्म मरण के बन्धनों से छूटने व मोक्ष प्राप्ति को कहते हैं। मोक्ष में जीवात्मा बिना जन्म लिये परमात्मा के सान्निध्य में रहकर आनन्द का भोग करता है, ब्रह्माण्ड में घूमता, मुक्त जीवों से मिलता व उनसे वार्तालाप करता है। अपवर्ग व मोक्ष की प्राप्ति ही संसार के सभी जीवों वा मनुष्यों का लक्ष्य है। वेदाचरण तथा समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार करने के बाद मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति की योग्यता व पात्रता प्राप्त होती है। यह सब बातें हमें परमात्मा प्रदत्त वेद ज्ञान से ही सुलभ हुई हैं। यदि वेद व वैदिक साहित्य न होते तो इन रहस्यों व विद्यायुक्त बातों का मनुष्यों को कदापि ज्ञान न होता। इस ज्ञान से युक्त होकर वेदाध्ययन करते हुए वेदानुकूल कर्मों को करना ही मनुष्यों का कर्तव्य व धर्म है। इससे इतर वेद विरुद्ध मतों में फंसकर जीवन व्यतीत करने से जन्म-जन्मान्तरों में जीवन उन्नति व मोक्ष लाभ प्राप्त नहीं होते। अतः सबको वेदों की शरण में आना चाहिये और अपने मनुष्य जन्म को सार्थक व सफल बनाना चाहिये। इसी से लोगों में भातृ व प्रेम भाव बढ़ेगा तथा ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्” का स्वप्न साकार होगा। वेद संसार के सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखने की शिक्षा देते हैं और बताते हैं कि ज्ञानी मनुष्य वह है जो सब प्राणियों को अपने समान तथा अपने को सब प्राणियों के समान देखता व जानता है। इसी से मनुष्य मोह व शोक से मुक्त होकर ईश्वर की उपासना, वैराग्य व लोकोपकार के कार्यों में प्रवृत्त होता है। वेदों के इन महान उपदेशों के कारण ही वेद संसार के प्राचीनतम व ज्येष्ठतम ज्ञान से युक्त ग्रन्थ है। 
मनुष्य को अन्य आवश्यक कार्यों को करते हुए जीवन में वेदाध्ययन अवश्य करना चाहिये। वेद ऋषि दयानन्द सरस्वती ने वेदों की परीक्षा कर अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर बताया है कि वेद सब सत्य विद्या का पुस्तक है तथा वेदों का अध्ययन कर इनका आचरण करना सब मनुष्यों का परम धर्म है। सौभाग्य से हमें वेद व इनके सत्य अर्थ हिन्दी, अंग्रेजी व अनेक भाषाओं में उपलब्ध है जिससे हम भी इनका अध्ययन करने के साथ इनकी सत्यता व महत्ता की परीक्षा कर सकते हैं। वेदाध्ययन करने से मनुष्य को ईश्वर व आत्मा सहित सृष्टि के भी सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है। वेदाध्ययन करने से मनुष्य सत्यज्ञान को प्राप्त होकर उसके अनुरूप कर्म करने की प्रेरणा ग्रहण करता है जिससे उसका जीवन साधारण से असाधारण बनता है। वह विद्वान, योगी, ऋषि तथा ईश्वर का साक्षात्कर्ता बनने की योग्यता तक प्राप्त करता है। इस अवस्था को प्राप्त करने पर ही मनुष्य का कल्याण होता है। उसका मनुष्य जन्म लेना सार्थक व सफल होता है तथा उसके परजन्म भी सुधरते व संवरते हैं। मृत्यु के बाद उसका दिव्य लोकों वा श्रेष्ठ मनुष्य योनि में धार्मिक व वैदिक परिवेश वाले परिवारों में जन्म होता है जहां उसके जीवन का सर्वांगीण विकास व उन्नति होती है। यही कारण है कि अतीत में वेदाध्ययन व वेदाचरण कर ही मनुष्य ऋषि, विद्वान, योगी, यश व कीर्तिवान राजा व महापुरुष बनते थे। अनेक ऋषियों तथा राम व कृष्ण आदि महापुरुषों का यश आज भी विद्यमान है। 
मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा योगेश्वर कृष्ण जी का जीवन आज भी हमारे लिये आदर्श एवं उपादेय है। हम उन जैसे यशस्वी बन सकते हैं परन्तु उनके जैसा बनने के लिये त्यागपूर्ण एवं कठोर पुरुषार्थपूर्ण जीवन को व्यतीत करना होता है। उसे करने की इच्छाशक्ति हममें न होने से हम उस अवस्था को प्राप्त नहीं हो पाते। राम व कृष्ण के जीवन सहित मनुष्य को ऋषि दयानन्द के जीवन से भी प्रेरणा लेनी चाहिये। उनका जीवन चरित्र पढ़ना चाहिये और इसके साथ उनके प्रमुख ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय सहित पंचमहायज्ञ विधि, गोकरुणानिधि तथा व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों का अध्ययन भी करना चाहिये। हमें ऋषि दयानन्द की दो लघु-पुस्तकों आर्योद्देश्यरत्नमाला तथा स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश पर भी ध्यान देना चाहिये। यह दो लघु ग्रन्थ भी स्वाध्याय के अति उत्तम ग्रन्थ है। कुछ मिनटो व घंटों में ही इन्हें पढ़कर हम विद्वान व ज्ञानी हो सकते हैं। इनसे हमारी अनेकानेक भ्रान्तियां दूर हो सकती हैं। हमें ऋषि दयानन्द के अनुयायी महापुरुषों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महात्मा आनन्दस्वामी, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी आदि के जीवन चरित्रों को पढ़कर भी उनसे भी प्रेरणा लेनी चाहिये। ऐसा करने से हम सच्चे मनुष्य व ईश्वर भक्त बन सकते हैं जिससे समाज व देश को लाभ होने के साथ सत्यधर्म की सेवा भी हो सकती है। 
मनुष्य जीवन में सद्ज्ञान की प्राप्ति सहित ईश्वर की उपासना तथा वेद विहित कर्मों को करने में पुरुषार्थ की नितान्त आवश्यकता है। बिना इस मार्ग का अनुसरण किये मनुष्य का जीवन उन्नत व सफल नहीं हो सकता। सत्कर्मों को करने से ही सुख व आत्मा का कल्याण होता है। आत्मा की उन्नति होने से उपासक, साधक वा मनुष्य को यश वा सुख मिलता है तथा उसकी जन्म व जन्मान्तरों में उन्नति भी होती जाती है। इस मार्ग पर चलने से मनुष्य को ईश्वर का प्रत्यक्ष होकर मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। आत्मा का मुख्य लक्ष्य परमगति मोक्ष को प्राप्त होना ही है। यह लाभ वेदाध्ययन व वेदाचरण सहित सत्कर्मों में प्रवृत्ति से ही प्राप्त होता है। ईश्वर उपासना व देवयज्ञ अग्निहोत्र मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ाते हैं। स्वाध्याय करते रहने से मनुष्य के ज्ञान में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। स्वाध्याय ही एक प्रकार का सत्संग ही है। उपासना में हम ईश्वर का संग करते हैं। उपासना से बड़ा सत्संग दूसरा कोई नहीं हो सकता। इसी प्रकार से वेदों का स्वाध्याय व अध्ययन भी सच्चा व उत्तम कोटि का सत्संग होता है। ध्यान, उपासना तथा स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान व प्रेरणाओं का चिन्तन व मनन करते हुए उसे जीवन में स्थायीत्व प्रदान करने से मनुष्य को अनेकानेक लाभ होते हैं। इसी लिये महर्षि दयानन्द ने हमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञ विधि सहित व्यवहारभानु एवं गोकरुणानिधि जैसे अनेक ग्रन्थ दिये हैं। ऐसा करते हुए हम ज्ञानी व सदाचारी बन जाते हैं और आत्म-सन्तोष से युक्त होकर मोक्षगामी बनते हैं। हम आशा करते हैं कि इस लेख की पंक्तियों से प्रेरणा लेकर हम स्वाध्याय व उपासना सहित पुरुषार्थी बन कर अपने जीवन का सुधार कर सकते हैं। ऐसा करने से हमारा जीवन निश्चय ही सुधरेगा व संवरेगा तथा हमें ईश्वर का सहाय व कृपा प्राप्त रहेगी। ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य


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