हम सन् 1970 में आर्य समाज में जाने लगे तो यहां हमारा सम्बन्ध समाज के अनेक पुराने सदस्यों व विद्वानों से हुआ। इनमें से एक विद्वान थे श्री अनूप सिंह जी। अन्य ऋषिभक्त विद्वानों में श्री धर्मेन्द्रसिंह आर्य, श्री ईश्वरदयालु आर्य, श्री संसारसिंह रावत, श्री ठाठसिंह जी आदि प्रमुख थे। आर्य समाज से हमारा परिचय व संबंध हमारे एक पड़ोसी सहपाठी स्नेही मित्र श्री धर्मपाल सिंह ने कराया था जो अत्यधिक स्वाध्यायशील व सिद्धान्तों के अच्छे जानकार थे। लगभग 20 वर्ष पूर्व एक सड़क दुर्घटना में वह दिवंगत हो गये थे। श्री अनूप सिंह जी के आकर्षक व्यक्तित्व व ज्ञान से हम बहुत प्रभावित हुए। श्री ईश्वर दयालु आर्य जी भी हमारे तभी से मित्र हैं। इनकी बातें बहुत तर्क व विद्वतापूर्ण होती थीं अतः उनसे हमारी निकटता बढ़ी और पारिवारिक मित्र के संबंध बन गये। धीरे-धीरे हम श्री आर्य जी की धर्मपत्नी माता यशवन्ती देवी के भी निकट आये। समय के साथ उनके परिवार के सभी सदस्यों से भी हमारे निकट स्नेह-संबंध बन गये। श्री ईश्वर दयालु आर्य जी का दिनाक 17 सितम्बर, 2020 को 88 वर्ष की आयु में रात्रि 10.00 बजे हृदयाघात से अचानक निधन हो गया। अगले दिन दिनांक 18 सितम्बर, 2020 को देहरादून लक्खीबाग श्मशान घाट में उनकी अन्त्येष्टि आर्य पुरोहित वेदवसु शास्त्री तथा गुरुकुल पौंधा-देहरादून के आचार्य डा. धनंजय आर्य जी ने अपने गुरुकुल के अनेक ब्रह्मचारियों द्वारा संस्कारविधि के मन्त्रों के पाठ व आहुतियों के द्वारा कराई।
श्री ईश्वर दयालु आर्य (जन्म तिथि 16 अगस्त, 1932) का विवाह माता यशवन्ती देवी जी से जून, 1951 में हुआ था। विवाह के समय माताजी का वय 16 वर्ष तथा श्री ईश्वर दयालु जी का 19 वर्ष था। श्री ईश्वर दयालु आर्य के पिता श्री तेलूराम के नाम से जाने जाते थे और कचहरी में नौकरी करते थे। जब श्री ईश्वर दयालु आर्य जी 10 वर्ष के ही थे, तभी आपकी माताजी का देहान्त हो गया। आपके एक छोटे भाई यशपाल थे जो सन् 2008 में दिवंगत हुए। आपकी एक छोटी बहिन अमृत देई थी जो बचपन में 3 वर्ष की आयु में ही दिवंगत हो गई थी। श्री ईश्वर दयालु आर्य की शिक्षा कक्षा 10 तक हुई। आपकी सरकारी सेवा में प्रथम नियुक्ति जुलाई, 1952 में जमीदारी उन्मूलन के कार्यालय में हुई थी। 29 मई, 1953 को आप न्याय विभाग के सहारनपुर स्थित कार्यालय में वैतनिक एप्रेन्टिस के पद पर नियुक्त हुए। वेतन 60 रूपये मासिक मिलता था। सहारनपुर से देहरादून, देहरादून से देवबन, देवबन से पुनः देहरादून, देहरादून से पौड़ी गढ़वाल, पुनः देहरादून, इसके पश्चात टिहरी और पुनः देहरादून आपके स्थानान्तरण हुए। 30 सितम्बर, 1989 को आप प्रशासनिक अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए। आप आर्य समाज, देहरादून के सन् 1955 में सदस्य बने थे। सन् 1969-70 की एक वर्ष की अवधि तक आप इस समाज के मंत्री रहे। इस आर्यसाज धामावाला की स्थापना सन् 1879 में ऋषि दयानन्द जी के कर कमलों से हुई थी। सन् 1960 में आप देवबन आर्य समाज के मंत्री बने थे और लगभग 3 वर्ष तक वहां मंत्री पद पर रहे। इन दिनों देवबन आर्यसमाज में लगभग 25 सक्रिय सदस्य हुआ करते थे। इस समाज के उत्सवों में अनेक विद्वान आमंत्रित होते थे। आर्य जगत के प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री ओम् प्रकाश वर्मा, यमुनानगर 3 वर्ष में तीनों बार उत्सव में पधारे थे। वर्तमान में श्री ओम् प्रकाश वर्मा जी यमुनानगर में निवास करते हैं। आप इन दिनों रुग्ण चल रहे हैं। आपकी आयु लगभग 95 वर्ष है। श्री ईश्वर दयालु आर्य जी ने सहारनपुर के आर्यसमाज के जिला स्तरीय संगठन में उप-प्रधान पद पर भी कार्य किया। देहरादून में आर्यसमाज के जिला स्तरीय संगठन में भी आप मंत्री व उपप्रधान पद पर कार्यरत रहे। श्री ईश्वर दयालु आर्य, देहरादून की कन्याओं की सबसे पुरानी, बड़ी व प्रसिद्ध आर्य शिक्षण संस्था ‘महादेवी कन्या पाठशाला-महाविद्यालय सोसायटी’ की प्रबन्ध समिति के सन् 1965-66 में सदस्य बने थे। सन् 1990-91 में आप इस सोसायटी के उपमंत्री बने और उसके बाद साढ़े चार वर्ष तक मंत्री व सचिव पद पर कार्यरत रहे। आपको एक बार इसी स्नात्कोत्तर महाविद्यालय की प्रधानाचार्या के नियुक्ति पत्र को अपने हस्ताक्षर से जारी करने का गौरव भी प्राप्त हुआ था।
श्री ईश्वर दयालु जी की तीन सन्तानों में एक पुत्री व दो पुत्र हैं। पुत्री डा. श्रीमति रश्मि, चण्डीगढ़ में अपने पतिकुल में चिकित्सक पति एवं दो पुत्रों के साथ निवास करती हैं। बड़े पुत्र श्री सत्यव्रत काम्बोज उत्तराखण्ड राज्य के विद्युत विभाग से सेवानिवृत अधिकारी हैं। उनकी पत्नी श्रीमति निशा जी ने श्री ईश्वर दयालु जी तथा सासु माता यशवन्ती देवी जी के जीवन काल में पूरे मनोयोग से उनकी प्रशंसनीय सेवा की। माता यशवन्तीदेवी जी तथा श्री ईश्वरदयालु जी उनकी सेवा से सदैव सन्तुष्ट रहे। ऐसा हमने माता जी के मुखारविन्द से अनेक बार सुना था। ईश्वरदयालु जी की उनके पुत्र व पुत्रवधु द्वारा सेवा होते भी हमने देखा है। हमारी दृष्टि में यह आदर्श पुत्र व पुत्र वधु कहे जा सकते हैं। माता जी की मृत्यु के बाद से श्री ईश्वर दयालु आर्य जी देहरादून में अपने बड़े बेटे सत्यव्रत जी तथा पुत्रवधु निशा जी के साथ रह रहे थे। हम जब जब दयालु जी व माता जी से मिलने इनके घर जाते थे ंतो हमारा भी अच्छा सेवा-सत्कार होता था। माता जी की रूग्णावस्था में हमने निशा जी को उनकी हर प्रकार की सेवा करते देखा है। श्री सत्यव्रत जी का एक पुत्र रमण व एक पुत्री ऋचा हैं। दोनों सन्तानें विवाहित हैं। पुत्र रमण व उनकी धर्म-पत्नी श्रीमती अर्चना जी का एक पुत्र और एक पुत्री है। आर्य जी के छोटे पुत्र कर्नल सुधांशु आर्य हैं जो सेना में कार्यरत रहे और अब सेना की सेवा से कर्नल के पद से सेवानिवृत हैं। इनकी धर्मपत्नी श्रीमति निजारा उच्च शिक्षित हैं व आसाम की मूल निवासी हैं। वह पूना में एनडीए कालेज में वरिष्ठ शिक्षिका हैं तथा अपनी एक पुत्री प्राची के साथ पूना में ही रहती है। माता यशवन्ती देवी जी के सभी बच्चे व पोते-पोतियां अपनी दादी-दादा के पूर्ण आज्ञाकारी रहे। हम दयालु जी के परिवार को एक आदर्श परिवार की संज्ञा दे सकते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि कर्नल सुधांशु आर्य, पौत्र रमण तथा पौत्री ऋचा ने आर्यसमाज की मान्यताओं के अनुसार जन्मना जाति से पृथक गुण-कर्म-स्वभावानुसार विवाह किए हैं।
श्री ईश्वर दयालु आर्य जी से परिचय व निकटता के बढ़ने पर हमारा उनके निवास पर यदा-कदा आना-जाना होता रहता था। घर में प्रायः माताजी व श्री ईश्वरदयालु जी ही मिला करते थे। परिवारों की परस्पर कुशल-क्षेम पूछने के बाद हम किसी आर्यसमाज से सम्बन्धित विषय को पकड़ते थे और उस पर लम्बी चर्चा करते थे। वार्तालाप में नये-नये विषय जो आर्यसमाज पर ही केन्द्रित होते थे, सामने आते रहते थे, जिसमें माताजी भी अपने अनुभव व स्मृतियों को प्रस्तुत कर योगदान दिया करती थीं। एक-दो घंटे व्यतीत हो जाने पर हमारे द्वारा जाने की अनुमति मांगने पर प्रायः माताजी कहा करती थी कि मनमोहनजी, अभी कुछ देर और बैठिये, हमें अच्छा लग रहा है। आप कई-कई दिनों में आते हैं। उनके शब्दों में आत्मीयता भरी होती थी, अतः हमें भी उनका आदेश मानना पड़ता था और फिर रूकने का अर्थ होता था कि हम किसी नये विषय की चर्चा करने लगते थे और 1 या डेढ़ घंटा पुनः लग जाना स्वाभाविक हुआ करता था। इस प्रकार वर्षों तक ऐसा ही चलता रहा। इसके अलावा कई बार हम फोन पर भी हाल-चाल पता किया करते थे तो 15 मिनट से आधा घण्टा बात हुआ करती थी। हम उन्हें अपने स्वाध्याय के विषयों, पुस्तकों व अपने लेखन का परिचय भी दिया करते थे। माता जी हमारी बातें सुनकर प्रसन्न हुआ करती थीं और हमें प्रेरणा करते हुए हमारा उत्साहवर्धन करती थीं। उनका आर्शीवाद, हमें लगता है कि हमारे जीवन के अनेक पक्षों में, सफल सिद्ध हुआ है। इतना ही नहीं उन्हें हमारे बच्चों के विवाह आदि की भी चिन्ता रहा करती थी और वह इसके लिए प्रयास करती थीं। हमारे सभी मित्रों की भी उन्हें चिन्ता रहा करती थी और वह उनके बारे में हमसे पूछती थीं। हम भी उन्हें वास्तविकता से परिचित कराते थे। जब भी उनसे मिलने जाते थे तो चाय व सूक्ष्म आहार तो होता ही था, भोजन के समय उनका भोजन का भी अत्यन्त स्नेह से भरे शब्दों में आग्रह रहा करता था। अनेक अवसरों पर हमने उनके साथ भोजन भी किया था। उनमें जो मातृत्व व स्नेह था, वह हमें मन व हृदय में कहीं न कहीं ऊर्जा, प्रेरणा, बल व शक्ति दिया करता था।
श्री ईश्वर दयालु आर्य के जीवन से जुड़ी सन् 1972 की एक स्मरणीय घटना है। आप एक दिन जब आर्यसमाज धामावाला, देहरादून में आये तो वहां आर्यसमाज के सदस्य श्री वेदपाल सिंह, तहसीलदार ने उन्हें बताया कि कबाड़ी बाजार में एक कबाड़ी के पास महर्षि दयानन्द जी का चित्र बिक्री हेतु उपलब्ध है। आपने महर्षि का चित्र अपने गांव में नानाजी की छोटी सी दुकान पर देखा था। आप सीधे कबाड़ी की दुकान पर पहुंचे और चित्र का दाम पूछा। एक या दो रूपये का मूल्य देकर आपने वह चित्र ले लिया जो आपके पहले न्यूरोड, देहरादून और उसके बाद राजपुर रोड, देहरादून स्थित निवासों की बैठकों की शोभा होता था। जब आप इस घटना का उल्लेख करते हैं तो आपके मन में पीड़ा झलकती है कि वह कौन व्यक्ति रहा होगा जिसने महर्षि दयानन्द का वह चित्र कबाड़ी को बेचा था।
ईश्वर दयालु आर्य से जुड़ी हमारी अनेक स्मृतियां हैं। इस लेख में उनमें से कुछ स्मृतियों का यहां उल्लेख कर रहे हैं। श्री ईश्वर दयालु जी आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के सभासद व अधिकारी रहें। हमें वर्ष 1994-1995 में आर्यसमाज-धामावाला के सत्संगों का संचालन करने का अवसर मिला था। इस कार्यकाल में सत्संगों में हमारी संत्संग संचालन समिति द्वारा जहां सैद्धानिक विषयों पर प्रवचन कराये जाते थे वहीं हमने समाज में वरिष्ठ पत्रकारों का सम्मेलन, स्वतन्त्रता सेनानी सम्मान सम्मेलन, कृष्ण जन्माष्टमी पर्व तथा पर्यावरण व समाज व्याख्यान विशेष रूप से आयोजित किये थे। पत्रकारिता सम्मेलन का विषय था आर्यसमाज की संस्कृत व हिन्दी पत्रकारिता को देन। इसी प्रकार स्वतन्त्रता सेनानी सम्मान सम्मेलन में नगर के सभी वरिष्ठ स्वतन्त्रता सेनानियों को आमंत्रित कर आर्यसमाज की स्वतन्त्रता आन्दोलन में भूमिका व योगदान पर गोष्ठी आयोजित की गई थी और सभी स्वतन्त्रता सेनानियों का सम्मान किया गया था। यह सम्मेलन 15 अगस्त, 1994 को हुआ था। कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर वरिष्ठ पौराणिक विद्वान आचार्य वायुदेवानन्द जी, मथुरा को आमंत्रित किया गया था। उन्होंने ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज को बहुत आदर व श्रद्धापूर्ण शब्दों में भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी थी। पर्यावरण और समाज व्याख्यान में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् श्री वीरेन्द्र पैन्यूली जी को आमंत्रित किया गया था। ऐसे आयोजन हमारे जीवन में इससे पूर्व समाज में देखने को नहीं मिले। इसका कारण यह था कि हमारे समाज की सत्संग समिति के प्रमुख प्रा. अनूप सिंह जी थे। वह स्वयं शिक्षक, वरिष्ठ पत्रकार, आर्य विद्वान, प्रभावशाली वक्ता तथा राजनेता थे। उनका परिचय व सम्पर्क क्षेत्र अति विस्तृत था
जब किसी कीर्तिशेष आर्य विद्वान का जन्म दिचस व पुण्य तिथि होती थी तो उस अवसर पर उनके जीवन पर भी संक्षिप्त प्रवचन सहित वैदिक सिद्धान्तों पर प्रवचन कराते थे। ऐसे ही एक अवसर प. लेखराम बलिदान दिवस पर हमने श्री ईश्वर दयालु आर्य जी को पं. लेखराम जी के जीवन पर मुख्य प्रवचन के लिये निवेदन किया था। आपने पूरी तैयारी के साथ यह प्रवचन दिया था। आज भी वह दृश्य हमारी आंखों के सामने उपस्थित है। श्री आर्य देहरादून की तीन प्रमुख आर्य संस्थाओं आर्ष गुरुकुल पौंधा, वैदिक साधन आश्रम, तपोवन तथा मानव कल्याण केन्द्र के उत्सवों के अवसर पर भी आयोजनों में पधारते थे। कोरोना से पूर्व वैदिक साधन आश्रम तपोवन के उत्सव में भी वह अपने पुत्र व पुत्र वधु के साथ आये थे जिसकी स्मृतियां इन पंक्तियों को लिखते हुए हमारी स्मृति में आ रही हैं।
देहरादून के प्रमुख आर्य विद्वान प्रा. अनूप सिंह जी मृत्यु से पूर्व लगभग एक वर्ष व अधिक कैन्सर रोग से पीड़ित थे। इस अवधि में हम उनसे मिलने नियमित रूप से जाते थे। कभी कभी उनको कैन्सर के स्थान कमर में भयंकर असहनीय पीड़ा होती थी। हम प्रायः प्रतिदिन उनके घर पर फोन पर हालचाल पता करते थे। जब जब यह पीड़ा होती थी तो हम श्री ईश्वर दयालु आर्य जी को साथ लेकर पैदल ही उनके निवास से प्रा. अनूप सिह जी के निवास पर उन्हें देखने जाते थे और उन्हें सान्त्वना देने सहित रोग के कारणों पर विचार करते थे। हमें यह भी ज्ञात है कि 20 वर्ष पहले श्री दयालु जी 68 वर्ष और हम 48 वर्ष के थे। दयालु जी इतना तेज चलते थे कि हमें उनसे मिलकर साथ साथ चलने में कठिनाई अनुभव होती है। इसका अर्थ यह है कि उन दिनों उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था और वह एक युवक के समान ऊर्जावान् थे। हमने यह भी जाना था कि वह स्वास्थ्य की छोटी छोटी बातों का ध्यान रखते थे। यही उनके स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन का आधार था। श्री ईश्वर दयालु आर्य जी वर्ष 1994-1995 में देहरादून समाज की ओर से आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश में प्रतिनिधि थे। सभा के लखनऊ में आयोजित त्रैवार्षिक निर्वाचन में देहरादून से पांच प्रतिनिधियों में हम व दयालु जी भी सम्मिलित हुए थे। तब भी हम यात्रा में उनके साथ रहे तथा एक ही स्थान पर निवास किया था। इस अवधि में भी हमने उनके व्यवहार व व्यक्तित्व की विशेषताओं को जाना था।
श्री ईश्वर दयालु आर्य जी का हमसे हार्दिक प्रेम था। हमने अनेक अवसर पर उनके निवास पर आयोजित यज्ञों व संस्कारों में पौरोहित्य का कार्य किया है। इस कारण उनके परिवार व अनेक संबंधी हमें जानते हैं। इस अवसर पर भी वह हमारा विशेष सम्मान करते थे। ऐसा ही सम्मान वह आर्य समाज के सभी पुरोहितों व विद्वानों को दिया करते थे। श्री आर्य देहरादून में शहीद उधम सिंह जी के बलिदान पर्व मनाने वाली आयोजन समिति के भी प्रमुख व्यक्तियों में थे। उनके समय में जब यह पर्व दिसम्बर महीने में आता था तो वह हमें इसे कराने के लिये प्रेरित करते थे और हम सहर्ष समय पर पहुंच कर यज्ञ सम्पन्न कराते थे। इसके कुछ चित्र भी हमारे पास हैं जो उनकी हमारे प्रति प्रेम का प्रमाण हैं। श्री दयालु जी की पुत्री व छोटे पुत्र के विवाह कार्यक्रम व संस्कार में भी हमें सम्मिलत होने का अवसर मिला था। यह दोनों विवाह संस्कार आर्य पुरोहितों ने वैदिक विधि से सम्पन्न कराये थे। यह दयालु जी का वैदिक सिद्धान्तों में निष्ठा का प्रबल प्रमाण है। यह भी बता दें कि अपनी पुत्री के विवाह का निमंत्रण पत्र आपने हिन्दी व संस्कृत दोनों भाषाओं में छपवाया था। जीवन में अपने मित्रों में दयालु जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने संस्कृत में विवाह का निमंत्रण पत्र छपवाया था। अब तो आर्य परिवारों के सदस्य आर्यसमाज की परम्पराओं को विस्मृत कर इन कार्यों के लिये अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हैं। उन्हें हिन्दी का महत्व तथा अंग्रेजी के प्रयोग से हिन्दी का जो अपमान होता है, उसका ज्ञान ही नहीं है। जब जब ऐसी स्थिति आती है तो हमें बहुत पीड़ा होती है और हम किसी अन्य रूप में इसके सुधार का उपाय करते हैं। समय-समय पर हमने श्री आर्य जी को गुरुकुल आदि संस्थाओं में यथेष्ट धनराशि दान के रूप में देते हुए भी देखा है। श्री ईश्वर दयालु जी का एक गुण यह भी था कि वह वेदमन्त्रोचार करने वाले पुरोहितों के मन्त्र पाठ में अशुद्धियों को सहन नहीं करते थे। यज्ञ समाप्त होने के बाद वह पुरोहित जी को सम्मानपूर्वक सुधार हेतु उनकी त्रुटियों को बता देते थे। स्वाध्याय उनके जीवन का अंग रहा और अन्तिम दिनों तक उन्होंने वेदों का स्वाध्याय करना छोड़ा नहीं। यदि हम और विचार करेंगे तो उनके अनेकानेक गुण हमारी स्मृति में आते जायेंगे।
श्री ईश्वर दयालु आर्य जी धर्मपत्नी माता यशवन्ती देवी जी उनके जीवन का प्रमुख हिस्सा रही हैं। अतः उनके जीवन का संक्षेप में यहा उल्लेख कर रहे हैं। माता यशवन्ती देवी जी सहारनपुर, उत्तर प्रदेश के एक ग्राम खुर्रमपुर में जन्मी थीं। उनके पिता श्री मुत्सिद्दी लाल तथा माता का नाम श्रीमति भागीरथी था। पिता सहारनपुर के प्रसिद्ध आर्यसमाजी थे। वह एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक थे। इसके साथ वह हारमोनियम पर आर्य समाज के भजन भी गाया करते थे। हारमोनियम बजाने के गुण व संस्कार माता यशवन्ती देवी में भी साथ आयेे थे। गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर की प्रबन्ध समिति अर्थात् अन्तरंग सभा के श्री मुत्सिद्दी लाल लगभग 15 वर्षों तक सदस्य रहे। माता यशवन्ती देवी जी के मायके में प्रति दिन यज्ञ हुआ करता था। यज्ञ के सभी मन्त्रों सहित स्वस्तिवाचन व शान्तिकरण के मन्त्र भी आपको कण्ठस्थ थे। पिता ने विवाह के समय माता यशवन्ती देवी को एक हारमोनियम भी दिया था जिसे माताजी बहुत सम्भाल कर रखती थी और उस पर भजन गाया करती थी। पारिवारिक कार्यक्रमों व सत्संगों में, जहां महिलाओं द्वारा यज्ञ व सत्संग होता था, आप यदा-कदा भजन गाया करती थी। माताजी की एक बड़ी बहिन दमयन्ती तथा एक छोटे भाई सहदेव थे। बड़ी बहिन का विवाह करनाल में हुआ था जो बाद में रोहतक में रहने लगी थीं। अब वह भी दिवंगत हैं। छोटे भाई सहदेव ने उन दिनों कक्षा 12 तक पढ़ाई करने के बाद गांव में अध्यापन का कार्य किया। माताजी ने भी पांचवी पास करने के बाद अपने गांव के बच्चों को 2 वर्ष तक पढ़ाया था। श्री ईश्वर दयालु आर्य ने हमें बताया था कि घर में बच्चों के लालन-पालन में उनके स्वभाव में मास्टराना अन्दाज यदा-कदा दृष्टिगोचर होता था। आपके दो भाई, ताऊजी के पुत्र, श्री जगदीश चन्द्र शास्त्री (विद्या भास्कर) व श्री देवपाल शास्त्री (आयुर्वेद भास्कर) गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के स्नातक थे। बड़े भाई गुरूकुल में जगदीश बाबा के नाम से प्रसिद्ध थे। आपका शरीर अत्यन्त स्वस्थ, भव्य, आकर्षक तथा लम्बा था। आपने हिमाचल प्रदेश में अध्यापन का कार्य किया। आपके दूसरे भाई श्री देवपाल शास्त्री ने गुरूकुल महाविद्यालय से आयुर्वेद भास्कर करने के बाद अध्यापन का कार्य किया। आप रोगियों की चिकित्सा भी किया करते थे।
आर्य विचारों से पूरित पारिवारिक वातावरण के कारण माता यशवन्ती देवी जी भी युवावस्था में आर्य संस्कारों से पूरी तरह से अलंकृत वा समाविष्ट थीं। आपके पति श्री ईश्वर दयालु आर्य ने अनेक बार हमें बताया कि उनका अपना परिवार आर्यसमाज से अधिक परिचित नहीं था। जब विवाह का प्रस्ताव हुआ और दोनों परिवार उसके लिए सहमत हो गये तो विवाह संस्कार की बात सामने आई। माताजी के पिता ने वर पक्ष को कहा कि हमारी पुत्री विवाह संस्कार में कन्या द्वारा बोले जाने वाले सभी मन्त्र स्वयं बोलेगी और इसी प्रकार से वर को भी वर द्वारा बोले जाने वाले सभी मन्त्रों को स्वयं बोलना होगा। इसके लिए उन्होंने वर पक्ष को संस्कार विधि पुस्तक की एक प्रति मंत्र पाठ की तैयारी करने के लिए दी थी। श्री ईश्वर दयालु आर्य बताते हैं कि इस प्रकार उन्हें अपने विवाह से पूर्व संस्कारविधि को देखने व अध्ययन करने का पहली बार अवसर मिला। इस घटना को वह अपने जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना मानते थे। यह घटना वह माताजी की उपस्थिति में हमें सुनाया करते थे और इसे उन्होंने अनेक अवसरों पर हमें सुनाया। वह स्वीकार करते थे कि आर्यसमाज के विचारों व सिद्धान्तों पर उनकी आस्था माताजी व उनके परिवार की संगति का ही परिणाम रही है।
आज हमारे पितृतुल्य श्री ईश्वर दयालु आर्य जी अपने भौतिक शरीर से हमारे बीच में नहीं है परन्तु उनका यशःशरीर आज भी हमारे पास है। आपकी मधुर व प्रेरणाप्रद जीवनादर्शों की स्मृतियां ही उनका यशःशरीर हैं जो हमें प्रेरणा करता रहा है और करता रहेगा। हम श्री आर्य जी को उनके प्रेरणादायक जीवन व आदर्शों का स्मरण कर उन्हें श्रद्धांजलि देते है। उनका परिवार आर्य-पथानुगामी व स्वाध्यायशील बने, वैदिक नित्य कर्मों व अनुष्ठानों को करे-कराये, यही हमारी उनसे अपेक्षा एवं शुभकामना है। ईश्वर से हमारी प्रार्थना है कि यह परिवार स्वस्थ, सुखी हो व वैदिक विद्वानों का सहयोगी बना रहे। एक कवि की पंक्तियां हैं ‘पत्ता टूटा पेड़ से, ले गई पवन उड़ाये। अब के बिछुड़े न मिलेगें, दूर पड़ेगें जाय।’ इस श्रद्धांजलि के साथ ही हम लेख को विराम देते हैं।
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