कोई भी विद्वान जिस विषय को अच्छी प्रकार जानता है, उसको लोगों को जनाने व उस ज्ञान व विद्या से अपरिचित लोगों को परिचित कराने के लिये उस विषयक अपने ग्रन्थ वा पुस्तक की रचना करता है। संसार में इसी उद्देश्य से सहस्रों व लाखों ग्रन्थ लिखे गये हैं। इसके विपरीत कुछ लोग धनोपार्जन व अपने किसी निहित स्वार्थ व विचारधारा के प्रचार के लिये भी ग्रन्थों की रचना करते हैं। यदि रचना करने वाला व्यक्ति अपने विषय का विद्वान हो और उसका उद्देश्य सात्विक व जनकल्याण हों, तो उस व्यक्ति व उसकी रचना का महत्व होता व उससे लाखों लोग लाभान्वित होते हैं। ऋषि दयानन्द भी चारों वेदों के अप्रतिम विद्वान थे। उनके समय में सृष्टि के आदि में ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान से लोग दूर हो गये थे। वेदज्ञान प्रायः विलुप्त था। चार वेद विद्या के ग्रन्थ हैं और ऋषि दयानन्द के समय में संसार में जो ज्ञान व मान्यतायें प्रचलित थीं वह सत्य ज्ञान पर आधारित न होकर अज्ञान पर आधारित, अन्धविश्वासों से युक्त तथा मनुष्यों का हित करने के स्थान अहित कर रहीं थी। अतः ईश्वर सहित अपने विद्यागुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती एवं अपने कुछ अनुयायियों की प्रेरणा से उन्होंने वैदिक ज्ञान वा विद्या के प्रचार के लिये वेदानुकूल वेद विद्या को प्रचारित व प्रसारित करने वाले ग्रन्थ की रचना की, उसे ‘सत्यार्थप्रकाश’ नाम दिया और उसके माध्यम से विलुप्त वेदों की सत्य व हितकारी शिक्षाओं का देश देशान्तर में प्रचार प्रसार किया। सत्यार्थप्रकाश जैसा ग्रन्थ इतिहास में इससे पूर्व कभी नहीं रचा गया। सत्यार्थप्रकाश वस्तुतः अज्ञान व अविद्या से सर्वथा मुक्त, देश देशान्तर व मनुष्य समाज में सत्य विद्या व वैदिक मान्यताओं का प्रचार करने वाला अपूर्व व अद्भुद ग्रन्थ है। एक साधारण व्यक्ति भी इसे पढ़कर विद्वान बन जाता है और मनुष्य जीवन की सभी समस्याओं व शंकाओं का समाधान प्राप्त करने सहित अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों से परिचित होकर उनकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान भी उसे इस ग्रन्थ के अध्ययन से प्राप्त होता है। सत्यार्थप्रकाश सभी मनुष्यों के जीवन से अविद्या व अन्धविश्वासों को दूर कर उन्हें ईश्वर के सच्चे स्वरूप का परिचय देकर ईश्वर से मिलाता व उसे प्राप्त कराता है। सत्यार्थप्रकाश की तुलना में हमें संसार का कोई ग्रन्थ इतना महत्वपूर्ण नहीं लगता जितना महत्वपूर्ण यह ग्रन्थ है।
ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश का प्रथम संस्करण सन् 1874 में लिख कर प्रकाशित कराया था। अपने मृत्यु से पूर्व सन् 1883 में आपने इस ग्रन्थ का संशोधित एवं परिमार्जित संस्करण तैयार किया था जो 30 अक्टूबर, 1883 को उनकी मृत्यु के बाद सन् 1884 में प्रकाशित हुआ। यह संशोधित संस्करण ही इस समय देश देशान्तर में प्रचलित है। इस ग्रन्थ की भूमिका में ऋषि दयानन्द जी ने इस ग्रन्थ को बनाने का प्रयोजन अवगत कराया है। वह कहते हैं ‘‘मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों (जिन्हें सत्य विद्याओं का यथार्थ व पूर्ण ज्ञान हो तथा जो समाज की उन्नति की भावना से निःस्वार्थ होकर सामाजिक कार्यों में प्रवृत्त हों) का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मुनष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।”
महर्षि दयानन्द ने उपुर्यक्त पंक्तियों में अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश को बनाने का प्रयोजन विदित किया है। उन्होंने जो कहा है उसका उनके द्वारा ग्रन्थ में पूरा पूरा पालन हुआ है। महर्षि दयानन्द सच्चे व सिद्ध योगी थे। उन्होंने योगाभ्यास के द्वारा समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार किया था। वह वेदों के विद्वान थे। उन्होंने वेदों पर न केवल ग्रन्थ ही लिखे हैं अपितु वेदों का भाष्य भी किया है। आक्समिक मृत्यु के कारण वह वेद भाष्य के महद् कार्य को पूर्ण नहीं कर सके। उन्होंने ऋग्वेद के आंशिक वा आधे से कुछ अधिक तथा यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य किया है। चतुर्वेद विषयसूची लिखकर उन्होंने चारों वेदों के भाष्य की अपनी पूरी योजना प्रस्तुत की थी जो अन्य परवर्ती विद्वानों के लिये भी उपयोगी रही है। वेद सब सत्यविद्याओं की पुस्तक हैं। वेद ईश्वर से उत्पन्न सृष्टि विषय परा व अपरा विद्याओं का सत्य ज्ञान है। ऋषि दयानन्द वेद सहित सभी विद्याओं में पारंगत थे। अतः उनका बनाया सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ अन्य मनुष्यों व विद्वानों द्वारा रचे गये ग्रन्थों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं उच्च स्थान रखता है। इस ग्रन्थ की महत्ता का ज्ञान तो इसका अध्ययन करने पर ही होता है। यदि सभी मतों के लोग अपने ग्रन्थों को पढ़ते हुए भी इस सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को निष्पक्ष होकर पढ़े तो उन्हें भी इसमें ऐसी अनेक बातें प्राप्त होंगी जो उनके मतों में नहीं है। मनुष्य जीवन को इसके लक्ष्य ‘‘मोक्ष” तक पहुंचाने के लिये वेदों सहित सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करना हमें सर्वथा आवश्यक एवं उचित लगता है। जो भी व्यक्ति निष्पक्ष होकर इस ग्रन्थ का अध्ययन करता है वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचता हैं।
सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की भूमिका में ग्रन्थ रचना का उद्देश्य बताने के बाद स्वामी दयानन्द ने अत्यन्त महत्वपूर्ण बातें लिखी हैं जो सबके जानने के योग्य हैं। वह लिखते हैं कि मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ कर असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नही है।
सत्यार्थप्रकाश की महत्ता के अनेक कारण हैं। सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखे स्वामी दयानन्द जी के यह शब्द भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं ‘यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मतों में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जो-जो बातें सब के अनुकूल सब में सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्ते और वर्तावें तो जगत का पूर्ण हित हो। क्योंकि (मत-मतान्तरों व इतर) विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़ कर अनेकविधि दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डूबा दिया है।’ ऋषि दयानन्द इसके आगे कहते हैं ‘इनमें से जो कोई सार्वजनिक हित लक्ष्य में धर कर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग विरोध करने में तत्पर होकर अनेक प्रकार के विघ्न करते हैं। परन्तु ‘सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।’ अर्थात् सर्वदा सत्य का विजय और असत्य का पराजय और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ़ निश्चय के आलम्बन से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्य अर्थ का प्रकाश करने से नहीं हटते।’ स्वामी दयानन्द जी ने जीवन भर अपने इन वचनों का पालन किया। बरेली में जब उनके द्वारा असत्य का खण्डन करने से रोकने का प्रयास किया गया तो उन्होंने सिंह घोषणा की थी और कहा था कि जब तक संसार में ऐसा सूरमा सामने नहीं आता जो यह कहे कि वह मेरी आत्मा का नाश व अभाव कर देगा, तब तक मैं असत्य का खण्डन न करने के प्रस्ताव पर विचार भी नहीं कर सकता।
सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में इसके बाद भी ऋषि दयानन्द ने अनेक महत्वपूर्ण बाते लिखी हैं। वह कहते हैं कि ‘यह बड़ा दृढ़ निश्चय है कि ‘यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।’ यह गीता का वचन है। इसका अभिप्राय यह है कि जो-जो विद्या ओर धर्म-प्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् अमृत के सदृश होते हैं। ऐसी बातों को चित्त में धरके मैंने इस ग्रन्थ को रचा है। श्रोता वा पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देख के इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ का सत्य-सत्य तात्पर्य जान कर (उनके जनहितकारी उद्देश्य को पूरा व) यथेष्ट करें। इसमें यह अभिप्राय रक्खा गया है कि जो-जो सब मतों में सत्य-सत्य बातें हैं, वे वे सब में अविरुद्ध होने से उनका स्वीकार करके जो-जो मतमान्तरों में मिथ्या बातें हैं, उन-उन का खण्डन किया है। इसमें यह भी अभिप्राय रक्खा है कि सब मतमतान्तरों की गुप्त वा प्रकट बुरी बातों का प्रकाश कर विद्वान् अविद्वान् सब साधारण मनुष्यों के सामने रक्खा है जिससे सब (मनुष्यों) से सब (बातों) का विचार होकर परस्पर प्रेमी हो के एक सत्य मतस्थ होवें।’
सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में कही एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात को भी हम यहां प्रस्तुत करना आवश्यक समझते हैं। वह कहते हैं ‘यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हआ और वसता हूं, तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर याथातथ्य प्रकाश करता हूं वैसे ही दूसरे देशस्थ वा मत वालों के साथ भी वर्तता हूं। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वत्र्तता हूं, वैसा विदेशियों के साथ भी तथा सब सज्जनों को भी वत्र्तना योग्य है। क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकल के (लोग) स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और बन्ध करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं भी होता, परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन (Humanity) से बाहर हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् होकर निर्बलों को दुःख देते ओर मार भी डालते हैं, जब मनुष्य शरीर पाके वैसा ही कर्म करते हैं तो वे मनुष्य स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं। और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहाता है और जो स्वार्थवश होकर परहानि मात्र करता रहता है, वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।’
ऋषि दयानन्द ने जिन दिनों वेद व वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया था उन दिनों देश व विश्व अज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त तथा सद्ज्ञान व आध्यात्मिक सत्य ज्ञान से कोसों दूर था। उस समय आवश्यकता थी कि सब सच्चे विद्वान एक डाक्टर द्वारा रोगी का उपचार करने की भांति सबको सद्ज्ञान व सद् उपदेश देते। एक सच्चे व योग्य चिकित्सक के कर्तव्य का ही पालन ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश लिखकर व वेद प्रचार कर किया है। यदि वह ऐसा न करते तो आने वाली मनुष्य जाति सत्यासत्य के विवेक से वंचित रहती। उन्हें सत्य धर्म व सत्य मत का कभी बोध ही नहीं होता। ऋषि दयानन्द ने जो कार्य किया वह ईश्वर की आज्ञा का पालन ही था। सभी सच्चे विद्वानों, आचार्यों व उपदेशकों का उद्देश्य व कर्तव्य सत्य मान्यताओं का प्रचार करना ही होता है। ऋषि दयानन्द ने अपना कर्तव्य बहुत ही अच्छी प्रकार से निभाया है। इससे विश्व का उपकार हुआ है। लोगों को मत-मतान्तरों के सत्यस्वरूप व उनमें निहित अविद्या व अन्धविश्वासों का बोध हुआ। कुछ लोग असत्य मतों को छोड़कर सत्य मत को भी प्राप्त हुए हैं। ऋषि दयानन्द ने जो कार्य किये, सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की, उससे भावी पीढ़ियों को सत्य मार्ग का बोध होगा जिस पर चलकर वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश की अनेक विशेषतायें हैं। इस कारण से यह विश्व का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। सत्यार्थप्रकाश मनुष्य मात्र के लिये हितकारी व सन्मार्ग को प्राप्त कराने वाला है तथा ईश्वर व आत्मा का सत्य ज्ञान कराकर लोगों को उपासना व साधना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कराने में सहयोगी है जिससे मनुष्यों के सभी दुःखों की निवृत्ति होकर मोक्ष प्राप्त होता है। सत्यार्थप्रकाश की जय हो। सत्यार्थप्रकाश अमर रहे।
-मनमोहन कुमार आर्य
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