हम संसार में रहते हैं और सृष्टि वा संसार को अपनी आंखों से निहारते हैं। सृष्टि का अस्तित्व प्रत्यक्ष एवं प्रामणिक है। हमारी यह सृष्टि कोई अनुत्पन्न, अनादि व नित्य रचना नहीं है। इसका अतीत में आविर्भाव व उत्पत्ति हुई है। इसके अनेक प्रमाण है। यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि सृष्टि सहस्रों व करोड़ों वर्ष पूर्व उत्पन्न हुई थी। सृष्टि में हम वनस्पति, अन्न एवं प्राणि जगत को भी देखते हैं। इनका भी आरम्भ सृष्टि उत्पन्न होने के बाद हुआ। सृष्टि में मनुष्य भी एक प्रमुख प्राणी है। यह पृथिवी में अनेक स्थानों पर रहते हैं और ज्ञान तथा भाषा से युक्त हैं। सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद ही जल, वायु, अग्नि आदि पदार्थों की उत्पत्ति हुई और इसके बाद अन्न, वनस्पतियां तथा प्राणी जगत की उत्पत्ति हुई। सृष्टि में मनुष्यों के उत्पन्न होने पर उनके जीवन निर्वाह हेतु भाषा एवं ज्ञान की आवश्यकता आरम्भ से ही थी। यह भाषा व ज्ञान भी मनुष्य अपने साथ लेकर उत्पन्न नहीं हुए थे अपितु यह उनकी उत्पत्ति के बाद ही उत्पन्न हुआ। यह सब पदार्थ किससे उत्पन्न हुए, यह जानना आवश्यक एवं स्वाभाविक है। यदि इस विषय में हम साधारण व विशेष ज्ञानी मनुष्यों से प्रश्न करें तो इसका समुचित उत्तर नहीं मिलता। इस विषय में लोग नाना प्रकार की कल्पनायें कर उत्तर दिया करते हैं। इन प्रश्नों के सही उत्तर वैदिक धर्म एवं संस्कृति से इतर किसी भी परम्परा, मत व संस्कृति यहां तक की आधुनिक विज्ञान के पास भी उपलब्ध नहीं हैं। वैदिक धर्म व परम्पराओं में ही इनके यथार्थ उत्तर मिलते हैं। यह उत्तर महाभारत युद्ध के पश्चात के वर्षों में विस्मृत हो गये थे जिन्हें ऋषि दयानन्द ने अपने अदम्य साहस एवं पुरुषार्थ से खोज निकाला और उनका प्रचार कर उसे जन-जन तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त की। हमारा सौभाग्य है कि हम इन सभी प्रश्नों के यथार्थ उत्तर जानते हैं।
ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने सहित मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिये अपने पितृ गृह का सन् 1846 में त्याग किया था और देश में घूम घूम कर उन दिनों के ज्ञानी पुरुषों, विद्वानों, धर्माचार्यों, योगियों आदि की संगति कर तथा उन दिनों उपलब्ध समस्त साहित्य का अवलोकन कर अपनी शंकाओं व प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने के प्रयत्न किये थे। लगभग 16 वर्ष के उनके प्रयत्नों का परिणाम यह हुआ था कि उन्हें अपने सभी प्रश्नों व शंकाओं के यथार्थ समाधान मिल गये थे। इसके अतिरिक्त वह योग विद्या सीख कर उसमें प्रवीण होकर ईश्वर का साक्षात्कार करने में भी सफल हुए थे। ईश्वर सिद्धि एवं ईश्वर का साक्षात्कार जीवन में प्राप्त की जाने वाली सबसे बड़ी सफलतायें होती है। इस अवस्था को प्राप्त होकर मनुष्य संसार के विषय में जो भी जानना चाहता है, वह उपलब्ध ज्ञान के चिन्तन-मनन व अपनी ऊहा, ध्यान व विवेक से जान लेता है। ऋषि दयानन्द ने योग के सभी आठ अंगों को सफलता पूर्वक जाना व प्रायोगिक दृष्टि से भी सिद्ध किया था और इसके साथ ही ज्ञान के प्रमुख ग्रन्थ ईश्वरीय ज्ञान वेद को वेदांगों वा व्याकरण सहित जाना था। इससे वह अज्ञान व अन्धविश्वासों से सर्वथा मुक्त तथा सभी विद्याओं को बीज रूप में जानने में सफल हुये थे। इस स्थिति को प्राप्त होकर उन्होंने वेदों सहित ईश्वर व आत्मा संबंधी रहस्यों का प्रचार करते हुए इन सभी प्रश्नों के उत्तर अपने व्याख्यानों तथा बाद में वेद प्रचार एवं मत-मतान्तरों की समीक्षा का अपूर्व ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ लिखकर प्रस्तुत किये थे। उनके दिये उत्तर ज्ञान व तर्क की कसौटी पर सत्य व खरे हैं। इसको जानने के लिये सभी मनुष्यों को ऋषि दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य, ऋषि जीवन चरित्र सहित वैदिक विद्वानों के वेदभाष्यों का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य की सभी शंकायें व भ्रम दूर हो जाते हैं और वह ईश्वर व आत्मा के ज्ञान सहित सांसारिक ज्ञान से भी युक्त हो जाता है। यही मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य भी है। अतः संसार के सभी लोगों को वेद व सत्यार्थप्रकाश की शरण में आना चाहिये। इससे उन्हें वह लाभ होगा जो अन्यत्र कहीं से नहीं हो सकता और हानि किसी प्रकार की नहीं होगी। यही नहीं, यदि इन ग्रन्थों का अध्ययन कर योग साधना नहीं की तो जन्म व परजन्मों में सर्वत्र हानि ही हानि होना निश्चित है।
सब मनुष्य यह जानना चाहते हैं कि यह संसार किससे उत्पन्न हुआ? इसका उत्तर वैदिक साहित्य से यह मिलता है कि यह संसार सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा ने बनाया है। वह इस जगत् का सर्वज्ञान व सर्वशक्तियों से युक्त निमित्त कारण है। अनादि त्रिगुणात्मक सत्व, रज व तम गुणों से युक्त सूक्ष्म प्रकृति इस जगत का उपादान कारण है जो कि एक जड़ पदार्थ है। इस प्रकृति का उपयोग ही परमात्मा इस सृष्टि को बनाने के लिये करते हैं। यदि प्रकृति न होती तो यह संसार बन नहीं सकता था। यदि इस प्रकृति में सत्व, रज व तम गुण न होते तो भी यह सृष्टि अस्तित्व में नहीं आ सकती थी। यह प्रकृति अनादि, नित्य, अविनाशी, ईश्वर व जीव से पृथक सत्ता होने सहित ईश्वर के पूर्ण नियंत्रण में रहती है। यह प्रकृति अपने आप संयोग व वियोग करने तथा नये पदार्थों को उत्पन्न करने में सर्वथा असमर्थ है। अतः जो वैज्ञानिक प्रकृति से स्वतः सृष्टि का निर्माण स्वीकार करते हैं, परमात्मा को सृष्टिकर्ता न मानने के कारण, प्रकृति से स्वयं सृष्टि रचना होने का उनका सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। सृष्टि रचना का वर्णन वेद, दर्शन, उपनिषद आदि ग्रन्थों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश में भी पढ़ने को मिलता है। सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में इन सभी ग्रन्थों के आधार पर अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन ऋषि दयानन्द ने किया है। उस वर्णन को सभी मनुष्यों को पढ़कर हृदयंगम कर लेना चाहिये और निभ्र्रान्त हो जाना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश में सृष्टि उत्पत्ति के प्रकरण में ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि प्रकृति, जीव और परमात्मा, यह तीनों अज अर्थात् अजन्मा व अनुत्पन्न हैं अर्थात् जनका का जन्म कभी नहीं होता और न कभी जन्म लेते हैं अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण वा आधार हैं। इन का उत्पत्तिकर्ता, कारण व आधार कोई नहीं है। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ इसमें फंसता है अर्थात् बन्धन में पड़ता है और इस प्रकृति में परमात्मा न फंसता और न उस का भोग करता है। प्रकृति के लक्षण व रचना पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं कि सत्व, रजः तथा तम अर्थात् जड़ता यह तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है उसका नाम प्रकृति है। उससे महतत्व बुद्धि, उससे अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन उत्पन्न होता है। पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर हैं। इन में से प्रकृति अविकारिणी और महतत्व अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रियों, मन तथा स्थूलभूतों का कारण हैं। पुरुष अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा न किसी की प्रकृति अर्थात् उपादान कारण हैं और न किसी पदार्थ के कार्य हैं। इस प्रकार परमात्मा ने प्रकृति से जीवों के लिये इस सृष्टि की रचना की है तथा वही इस समस्त सृष्टि को धारण कर संसार व सभी प्राणियों का पालन कर रहा है।
संसार में हमें जो प्राणी जगत दिखाई देता है वह भी परमात्मा ने ही उत्पन्न किया वा रचा है। परमात्मा का सत्यस्वरूप भी सबके जानने योग्य है। परमात्मा का स्वरूप सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है तथा सभी मनुष्यों के उपासना करने योग्य है। ईश्वर की उपासना में ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना, उसके उपकारों पर विचार व ध्यान करना तथा उसी में मग्न होकर उसका धन्यवाद करते हुए उससे एकाकार होने का प्रयत्न करना होता है। ऐसा करते हुए ही दीर्घकाल की साधना के बाद मनुष्य को ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार होता है। यही मनुष्य के जीवन का परम व चरम लक्ष्य होता है। ईश्वर के विषय में यह भी जानना चाहिये कि वह सभी जीवों के कर्मों का साक्षी होता है तथा जीवों को उनके कर्मों का फल प्रदाता होता है। वह जीवों को उनके सभी कर्मों का फल भुगाता है। मनुष्य अपने किसी एक कर्म का भोग किये छूटता नहीं है। अतः मनुष्य को सावधानी पूर्वक ही अपने प्रत्यक कर्म को करना चाहिये। इसका कारण यह है कि उसे कालान्तर में अपने सभी शुभ व अशुभ कर्मों का फल सुख व दुःख के रूप में अवश्य ही भोगना पड़ेगा। तब उसे अपने अशुभ कर्मों के कारण मिलने वाले दुःख से पश्चाताप होता है। इस प्रकार हमें सृष्टि की रचना तथा प्राणी जगत की उत्पत्ति परमात्मा से ही होने का समाधान वैदिक साहित्य से प्राप्त होता है जिसे हमारी आत्मा सत्य स्वीकार करती है। यही भ्रान्ति रहित सत्य ज्ञान है। इसे सब मनुष्यों को स्वीकार करना चाहिये और इसका प्रचार भी करना चाहिये।
संसार में आदि भाषा संस्कृत, जैसी की वेदों में है, तथा समस्त सत्य ज्ञान भी परमात्मा से ही प्राप्त हुआ है। वेद परमात्मा प्रदत्त वह ज्ञान है जो उसने सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को प्रदान किया था। यही ज्ञान इन ऋषियों से ब्रह्मा जी को प्राप्त होकर परम्परा से अद्यावधि 1.96 अरब वर्ष बाद भी उपलब्ध है और मनुष्य की सभी शंकाओं व भ्रमों को दूर करता है। परमात्मा यदि भाषा व वेद में निहित सभी सत्य विद्याओं का ज्ञान न देता तो मनुष्य आज तक अज्ञानी ही रहते। मनुष्यों में यह सामथ्र्य नहीं है कि वह स्वयं आदि व प्रथम भाषा, जो कि संस्कृत है तथा जो परमात्मा ने वेदों के द्वारा दी है, उसका निर्माण कर सके। मनुष्य आदि भाषा सहित ज्ञान की उत्पत्ति करने में असमर्थ हैं। मनुष्यों की स्थिति तो यह है कि आज भी वह वेदों की विशिष्ट मान्यताओं को जानकर उससे लाभ नहीं उठा पा रहे हैं तथा भ्रमों व अन्धकार में जी रहे हैं। अतः मनुष्य आदि काल व कालान्तर में भाषा व वेद ज्ञान के समान किसी ज्ञान की उत्पत्ति कर सकते थे, ऐसा करना असम्भव है। भाषा व ज्ञान भी सृष्टि की आदि में वेदों के रूप में परमात्मा से ही मिला है। यही सत्य एवं यथार्थ तथ्य है।
हमने ऋषि दयानन्द द्वारा उद्धाारित वैदिक साहित्य से मनुष्य जीवन की मौलिक शंकाओं के समाधान संक्षेप में अपनी मति से दिये हैं। पाठक महानुभाव वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर इन विषयों में विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
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Tuesday 15 September 2020
“सृष्टि, प्राणी-जगत, भाषा एवं ज्ञान की उत्पत्ति किससे हुई?”
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