“वर्तमान समय में वेद एवं वेदेतर मत-पन्थों की प्रासंगिकता”


महाभारत काल के बाद संसार में अनेक ज्ञानी व अल्पज्ञानी मनुष्य हुए जिन्होंने समय समय पर देश, काल, परिस्थिति एवं अपनी योग्यतानुसार अनेक मतों का प्रचलन किया। समय के साथ उनके द्वारा चलाये गये मत पल्लवित व पोषित होते रहे और आज अनेक अवैदिक मतों का संसार पर प्रभाव व प्रधानता है। महाभारतकाल के बाद का काल मध्य काल कहा जाता है और वर्तमान काल को आधुनिक काल कहते हैं। महाभारत काल से पूर्व काल को वैदिक काल या प्राचीन काल कहते हैं। महाभारत काल व उससे भी कहीं अधिक प्राचीन चार वेद हैं। वेदों की प्राचीनता से संसार के अधिकांश बुद्धिजीवी परिचित हैं। ऋषि दयानन्द द्वारा संसार में वेदों का जो प्रचार किया गया है, उससे संसार वेदों के महत्व से परिचित हुआ। महाभारत आदि वैदिक ग्रन्थों से यह ज्ञात होता है कि महाभारत काल से पहले ऐसा काल रहा है कि जब सारे विश्व में वेदों का प्रचार था और वेद तथा वेदानुकाल शिक्षाओं को ही धर्म मानकर उसका संसार के सभी लोग पालन करते थे। महाभारत युद्ध के बाद वेदों का पठन-पाठन कम होता गया और विश्व की जनसंख्या तेजी से वृद्धि को प्राप्त होती गई। संसार में आवागमन के सुविधाजनक साधन न होने पर भी लोग विश्व के अनेक स्थानों पर आने जाने लगे। भारत भी एक विशाल साम्राज्य न रहकर छोटे छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। असंगठित देश व शक्ति का जो परिणाम होता है, वह कालान्तर में भारत में देखने को मिला। वेद की शिक्षाओं का स्थान भारत में अज्ञान व अविद्या के ग्रन्थ 18 पुराणों ने ले लिया। महाभारत के उत्तर काल में रचित इन पुराणों की शिक्षाओं से सत्य सनातन वैदिक धर्म का पतन हुआ। इनके कारण ही वैष्णव, शैव व शाक्त आदि मत अस्तित्व में आये। जिस परिवार व समाज की शासन व अनुशासन व्यवस्था खराब होती है वहां शिक्षा व अध्ययन-अध्यापक, अनुसंधान तथा विद्या की उन्नति की उपयुक्त व्यवस्था नहीं रहती। ऐसा ही कुछ हमारे देश में व्यापक रूप से हुआ। 
कालान्तर में वेद के पण्डितों के आलस्य व प्रमाद के कारण वेद विलुप्ति को प्राप्त हो गये और धर्म का स्थान वेद की शिक्षाओं के स्थान पर पुराणों की शिक्षाओं ने लिया। अविद्या के ऐसे ही समय में एकेश्वरवाद के स्थान पर अवतारवाद व बहुदेवतावाद के सिद्धान्त तथा मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध तथा फलित ज्योतिष आदि के व्यवहार प्रचलित हुए। लोग जड़ देवताओं को भी चेतन देवता मानने लगे और आज भी यह अविद्या हिन्दू समाज में व्याप्त है। वायु, जल व अग्नि आदि जड़ देवता हैं परन्तु इनकी भी ईश्वर मानकर पूजा की जाने लगी। देवता उसे कहते हैं जो दिव्य गुणों से युक्त हों। अग्नि, वायु व जल में दिव्य भौतिक गुण होते हैं। इसी कारण यह पदार्थ देवता कहलाते हैं परन्तु जड़ होने से यह उपासना के योग्य नहीं होते। ईश्वर व देवताओं की पूजा की जो विधि हिन्दू मतों में है वह अविवेकपूर्ण लगती है। यह पृथिवी पर खड़े होकर सूर्य को भी जल देते हैं। इन सब लक्षणों को देखकर यही कहा जा सकता है पौराणिक मत के प्रभाव से समाज में विवेक बुद्धि नष्ट हो गई और इस अविद्या के कारण हिन्दू समाज बिखरने के साथ नष्ट भ्रष्ट होता रहा। 
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश में ऋषि दयानन्द जी का आविर्भाव हुआ। वह सत्य व सच्चे ईश्वर की खोज सहित आत्मा के सत्यस्वरूप को जानने के लिए अपने घर को छोड़कर निकले थे। इसके बाद वह अनेक योगियों व ज्ञानियों के सम्पर्क में आये और एक अच्छे योगी व ज्ञानी बने। वह विभिन्न ग्रन्थों के अध्ययन तथा योगदर्शन के अनुसार योगाभ्यास से ईश्वर का साक्षात्कार करके भी सन्तुष्ट नहीं हुए। सन् 1857 में देश में राजनीतिक उथल पुथल हो रही थी। तब भी स्वामी दयानन्द एक उच्च कोटि के विद्या गुरू की खोज कर रहे थे। उन्हें अपने एक गुरु से मथुरा के प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी का पता मिला। स्वामी दयानन्द उनके पास पहुंच जाते हैं। तीन वर्ष तक उनके सान्निध्य में रहकर अध्ययन करते हैं और वेद वेदांगों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। उन्हें सत्य व असत्य ग्रन्थों की कसौटी भी अपने गुरु से प्राप्त होती है। उन्होंने जाना कि जिन धर्म ग्रन्थों में ऋषियों की आलोचना व निन्दा है वह अनार्ष कोटि के ग्रन्थ हैं। उन ग्रन्थों का त्याग कर देना चाहिये और जिन ग्रन्थों में प्राचीन ऋषियों की प्रशंसा व उनके ज्ञान व विचारों की चर्चा है उनका अध्ययन तर्क व विवेक बुद्धि से करना चाहिये। ऋषि व आप्त पुरुषों के सद्ग्रन्थों की परीक्षा करके उनके वेदानुकूल, तर्क व युक्तियों के अनुकूल होने पर ही उन्हें स्वीकार करना उचित होता है। 
अपने गुरु की प्रेरणा से स्वामी दयानन्द जी न, ईश्वर से सृष्टि के आरम्भ में प्राप्त वेद ज्ञान का प्रचार व प्रसार किया। उन्होंने वेद विरुद्ध सभी मतों की आलोचना व समीक्षा कर वेद की शिक्षाओं को सबके लिए ग्राह्य और मत-मतान्तरों की शिक्षाओं को हानिकारक, अनुपयोगी एवं मनुष्य की सांसारिक एवं पारलौकिक उन्नति में बाधक बताया। उन्होंने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में इसके पक्ष में प्रचुर तर्क व प्रमाण भी दिये हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि सभी मतों में हलचल हुई। सभी ऋषि दयानन्द जी के विरोधी व शत्रु बन गये। सत्य को ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने का साहस अपवाद स्वरूप ही किसी में होता है। स्वामी जी द्वारा वेदों का प्रकाश करने पर भी देशवासी अपने-अपने  हित-अहित को ध्यान में रखकर अपने मत में ही बने रहे। उन्होंने सत्य मत के ग्रन्थ वेदों को स्वीकार नहीं किया। आज भी यही स्थिति है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना कर उसको दस स्वर्णिम दिये जिनमें से चैथा नियम है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। आज यदि सभी मतों पर दृष्टि डाली जाये तो सत्य मान्यताओं से युक्त धर्म व मत की इच्छा रखने व उसे स्वीकार करने वाले ढूंढने पर भी नहीं मिलते। जिस मनुष्य का जहां हित सिद्ध होता होता है, जहां प्रलोभन हों तथा अतिश्योक्तिपूर्ण बातें हों, वहीं सब वेदविद्या हीन लोग जाते हुए दीखते हैं। वर्षों की गुलामी व अविद्या के संस्कारों के कारण मनुष्यों की बुद्धि ऐसी जड़ हो गई है कि वह अपनी बुद्धि से सत्य व असत्य का निर्णय नहीं कर पाते। इस विषय को वह अपने अपने अविद्या से ग्रस्त आचार्यों व धर्म गुरुओं पर छोड़ देते हैं। मत-मतान्तरों के आचार्य अपने चेलों का भावनात्मक व आर्थिक दोहन करते हैं। ऐसे कई धर्म गुरू विगत कुछ समय में कानून की पकड़ में भी आये हैं। लोग यह भूल बैठे हैं कि संसार में ईश्वर केवल और केवल एक है और उसके गुणों व शिक्षाओं का धारण व पालन ही मनुष्यों का धर्म व कर्तव्य है और वह सब मनुष्यों के लिए एक है। 
आजकल धर्म व मत के नाम से जो संगठन व संस्थायें चल रहीं हैं वह सब धर्म की परिभाषा सत्याचरण से युक्त नहीं हैं और न ही सत्य को सर्वोपरि महत्व देती हुई दीखती हैं। वस्तुतः धर्म तो सत्य का आचरण करना ही होता है और वह सबके लिए एक ही है। सभी धर्मों व उनकी पुस्तकों पर विचार करते हैं तो वेद के अतिरिक्त सभी एंकागी हैं। इसके अतिरिक्त उनकी अनेक शिक्षायें लिंग समानता पर आधारित न होकर पक्षपातपूर्ण हैं। विज्ञान की कसौटी पर कसने पर भी प्रायः सभी मत ज्ञान व विज्ञान के सिद्धान्तों के विरुद्ध सिद्ध होते हैं। अनेक मतों में काल्पनिक किस्से व कहानियां भी देखने को मिलती हैं। प्रायः सभी मतों में विज्ञान विरोधी बातें पायी जाती हैं। केवल वेद ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसकी सभी शिक्षायें व मान्यतायें मनुष्यों के गुण, कर्म व स्वभाव सहित उनकी योग्यता व पात्रता पर आधारित हैं। समानता व न्याय के सिद्धान्त का पालन भी वेदों की मान्यताओं एवं सभी सिद्धान्तों में होता है। सम्पूर्ण सत्य ज्ञान के आकर ग्रन्थ होने से वेद ही ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है। वेद के बाद यदि कोई ग्रन्थ मनुष्यों के लिए सबसे उपयोगी है तो वह सत्यार्थप्रकाश है। उसके बाद उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि समस्त वेदानुकूल वैदिक साहित्य को रख सकते हैं। अतः वेद व वेदानुकूल सभी ग्रन्थ ही धर्म ग्रन्थ कहला सकते हैं। वेद सब ग्रन्थों व विद्याओं का आदि स्रोत होने के कारण परमधर्म के शीर्ष स्थान पर स्थित है। 
वेदों और मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में एक बड़ा अन्तर यह है कि वेदों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति (कारण व कार्य) का यथार्थ वर्णन उपलब्ध होता है जबकि वेदेतर ग्रन्थों में अनेक प्रकार के भ्रम, संशय व अनिश्चय की स्थिति बनती है। इसी कारण से वेद वर्तमान समय में भी प्रासंगिक हैं। वेदाचरण से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। वेदाचरण से मनुष्य अपने इहलोक व परलोक को भी सुधारता हैं। अन्य मत मनुष्य जीवन को सुसंस्कारित बनाने सहित इहलोक को सुधारने का कोई युक्ति संगत ज्ञान नहीं है। परलोक को भी वेदेतर मत प्रायः अपने मत के प्रवर्तक की दया व कृपा पर छोड़ देते हैं या फिर आचार्यों द्वारा अपनी अल्पज्ञता व चातुर्य के कारण कह दिया कि उनके मत पर विश्वास ले आने पर उनके मतानुयायियों के पाप दूर हो जाते हैं जिससे उनकी सदगति व इच्छाओं की पूर्ति होती है। यह सिद्धन्त अविद्या से युक्त है। इसे ज्ञान व तर्क कइी कसौटी पर सिद्ध नहीं किया जा सकता। बहुत से मत व उनके अनुयायी पुनर्जन्म के यथार्थ सिद्धान्त को भी नहीं मानते। उनके मत के लोगों की मृत्यु होने पर उनके मत के लोगों की आत्माओं का क्या होता है? वह स्वर्ग व जन्नत की बातें करते हैं जो कि एक प्रकार से पौराणिक कल्पित स्वर्ग जैसा ही लगता है। इन बातों का न तो कोई शास्त्रीय प्रमाण है और न तर्क या बुद्धिसंगत सिद्धान्त ही। तर्क व बुद्धि को तो लगता है कि मत-मतान्तरों ने तिलांजलि दे रखी है। तर्क व युक्ति पर यदि किसी धर्म या मत के सिद्धान्त सत्य सिद्ध होते हैं तो वह केवल वैदिक धर्म व वैदिक मत ही है। एक दृष्टि सभी मतों की पूजा पद्धतियों पर भी डालनी उचित है। वेैदिक धर्म आत्मा से परमात्मा के गुणों का विचार, चिन्तन, उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित जप व कृतज्ञता व्यक्त करने को उसकी पूजा व उपासना मानता है जिसमें वेदों व वेदानुकूल ऋषिकृत ग्रन्थों का स्वाध्याय व उनका आचरण भी सम्मिलित है। अन्य मतों में कुछ लिखी हुई प्रार्थनाओं को याद कर उसे दोहरा देते हैं और कुछ शारीरिक आसन आदि करते हैं। ऐसा करके न तो किसी को ईश्वर प्राप्त होता है और न ईश्वर का साक्षात्कार होने की सम्भावना ही लगती है। 
योगदर्शन में अष्टांग योग का उल्लेख है। समाधि अष्टांग योग का अन्तिम अंग है। योगदर्शन में समाधि की प्राप्ति के साधन वर्णित हैं। समाधि वह अवस्था होती है जिसमें मनुष्य की आत्मा को ईश्वर का साक्षात्कार होता है। स्वामी दयानन्द व पूर्व के सभी ऋषियों ने समाधि अवस्था को प्राप्त कर स्वयं को ईश्वर के गुण कर्म व स्वभाव के अनुसार बनाया था व मानवता के उपकार के लिये कार्य किये थे। वेदेतर मतों में जीवन व आचरण की शुद्धि व पवित्रता पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। उनसे केवल अपने मत की सत्यासत्य मान्यताओं का अनुकरण ही कराया जाता है। आज के आधुनिक युग में मत-मतान्तरों की मान्यताओं का परीक्षा तक नहीं की जाती कि क्या वह समग्र रूप में सत्य भी हैं या नहीं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह जिस ध्येय का चिन्तन करता है व जिन लोगों की संगति करता है उसके अनुरूप ही वह बन जाता है। सत्य को जानने व उसका पालन करने के प्रति तीव्र भावना, दृण इच्छा विरले मनुष्यों में ही होती है। जो ऐसा करते हुए सत्यज्ञान व आचरण को प्राप्त होते हैं वही वास्तव में धर्मज्ञ व धर्मपुरूष होते हैं। 
लेख को विराम देने से पूर्व यह कहना है कि किसी भी ऐसे प्राणी की हत्या जो हमारा हितकारी है, अपकारी नहीं है, एक पाप होता है। उसका मांस खाना उससे भी बड़ा पाप है। पशु की हत्या करने वाले, उसके क्रय विक्रय करने वाले, मांस को पकाने वाले, परोसने व खाने वाले यह अधर्म का कार्य करते हैं। मनुस्मृति में यह बात डंके की चोट पर कही गई है। विदेशियों के सम्पर्क में आकर भारत के आर्य व हिन्दू जाति के कुछ लोग मांसाहार करने लगे। यह उनकी बहुत बड़ी अविद्या है। मानवता में विश्वास रखने वाले मनुष्यों को मांसाहार तुरन्त बन्द कर देना चाहिये अन्यथा जन्म जन्मान्तर में इस पाप कर्म रूपी अपराध का दण्ड भोगना पड़ेगा। हो सकता है कि अनेक बार पशु बन कर उन पशुओं के समान पीड़ित होना पड़े जिनका हमने मांस खाया है। धर्म का अर्थ सभी अच्छे व श्रेष्ठ गुणों को धारण करना है। श्रेष्ठ गुणों का धारण व उनका आचरण ही श्रेष्ठ धर्म है। यह वेद ही सिखाते व बताते हैं। अतः वेद वर्तमान समय में भी प्रासंगिक एवं उपयोगी है। अन्य मतों में असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के होने के कारण भले ही वह प्रचलित रहें, इसके अनेक कारण हैं, परन्तु वह प्रासंगिक नहीं हैं। आने वाले समय में उनका प्रभाव धीरे धीरे समाप्त हो सकता है। ईश्वर जब चाहेंगे तभी ऐसा होना सम्भव है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र और अपने कर्मों के फल भोगने में परतन्त्र है। जो जैसा करेगा वैसा ही भोगेगा। यह वैसा ही है जैसे मनुष्य जो बोता है वही काटता है। संसार के सभी लोग वेदों का अध्ययन करें व ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म का पालन कर अपने इहलोक व परलोक को सफल बनायें। वेदों का मार्ग मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार कराता है और अन्य मार्ग उसे आत्मा की मुक्ति व मोक्ष के स्थान पर बन्धनों में फंसा कर जन्म व मरण के दुःखों में बांधते हैं। वैदिक धर्म के समग्र रूप में पालन करने से ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह वेद के ऋषियों का सत्य सिद्धान्त है।
-मनमोहन कुमार आर्य


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