वेद सृष्टि के प्राचीनतम ग्र्रन्थ हैं। वेदों के अध्ययन से ही मनुष्यों को धर्म व अधर्म का ज्ञान होता है जो आज भी प्रासंगिक एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वर्तमान में संसार में जो मत-मतान्तर प्रचलित हैं वह सब भी वेद की कुछ शिक्षाओं से युक्त हैं। उनमें जो अविद्यायुक्त कथन व मान्यतायें हैं वह उनकी अपनी हैं। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। यह ज्ञान ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया था। ईश्वर एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य, अविनाशी तथा अमर सत्ता है। इस सृष्टि की रचना भी परमात्मा ने ही की है और इसका पालन भी सर्वव्यापक तथा सब जीवों व प्राणियों का पिता सर्वेश्वर ही कर रहा है। सर्वज्ञ व सर्वव्यापक होने से परमात्मा इस संसार, ब्रह्माण्ड वा विश्व के बारे में सब कुछ जानता है। मनुष्य कितना भी ज्ञान प्राप्त कर लें, यहां तक की उपासना आदि से ईश्वर का साक्षात्कार भी कर लंे, परन्तु वह परमात्मा के समान ज्ञानवान नहीं हो सकते। ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान का अध्ययन करने पर उसमें ईश्वर की सर्वज्ञता का बोध व दर्शन होते हैं।
वेदों का अध्ययन कर ही हमारे ऋषियों ने एक मत होकर, सृष्टि के विगत 1.96 अरब वर्षों के इतिहास में, सभी मनुष्यों के पांच प्रमुख कर्तव्य बताये हैं जिन्हें वह पंचमहायज्ञ कहा जाता है। इन पंचमहायज्ञों के नाम हैं ईश्वरोपासना वा सन्ध्या, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेवयज्ञ। इन पंचमहायज्ञों से युक्त होने के कारण ही वैदिक धर्म व संस्कृति यज्ञमयी संस्कृति कही जाती है। हमें यज्ञ शब्द के अर्थ का ज्ञान भी होना चाहिये। यज्ञ श्रेष्ठतम व सत्यज्ञान से युक्त कर्मों को कहते हैं। परोपकार व सुपात्रों को दान देना भी यज्ञ में सम्मिलित है। यज्ञ का एक अर्थ विद्वान चेतन देवों की पूजा व सत्कार करना होता है। चेतन देवों माता, पिता व विद्वानों सहित पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, आकाश आदि जड़ देवों की पूजा अर्थात् इनका सत्कार व इनसे लाभ प्राप्त करना, संगतिकरण तथा दान देना भी होता है। अग्निहोत्र यज्ञ में देवपूजा, संगतिकरण तथा दान का अच्छा समावेश रहता है। यज्ञ में विद्वानों को आमंत्रित किया जाता है और उनसे सदुपदेश प्राप्त किया जाता है। यज्ञ में हम जो घृत तथा साकल्य की आहुतियां देते हैं उनसे जड़ देवताओं का सत्कार होता है तथा प्रकृति व पर्यावरण का सन्तुलन बना रहता है। अग्निहोत्र यज्ञ से वायु व जल आदि की शुद्धि, रोगकारी किटाणुओं का नाश तथा मनुष्य आदि प्राणी रोगों से रहित तथा स्वस्थ रहते हैं। यज्ञ में वेदमंत्रों से ईश्वर की उपासना की जाती है जिससे वेदमंत्रों के अर्थों के अनुरूप परमात्मा हमारी प्रार्थनाओं को हमारी पात्रता के अनुसार पूरी करते हैं। यज्ञ से सब कामनाओं की पूर्ति एवं स्वर्ग की प्राप्ति होनी कही जाती है जो विचार करने पर सत्य एवं व्यवहारिक प्रतीत होती है। यज्ञ की इन सब व अन्य विशेषताओं के कारण ही परमात्मा ने वेदों में यज्ञ करने की प्रेरणा की है जिसे जानकर हमारे प्राचीन व अर्वाचीन ऋषियों व विद्वानों ने देश देशान्तर में यज्ञों का प्रचार किया था। आज भी वैदिक धर्म और ऋषि दयानन्द के अनुयायी आर्यसमाज संगठन से जुड़े बन्धु यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं तथा यज्ञ से होने वाले लाभों को प्राप्त करते हैं। यज्ञ करने से मनुष्य रोगरहित तथा स्वस्थ एवं अभावों से रहित हो जाते हंै। यज्ञकर्ता सुखी एवं ज्ञान विज्ञान सहित होकर सामाजिक जीवन में भी उन्नति को प्राप्त करते हैं।
परमात्मा ने यह सृष्टि अपनी सनातन व शाश्वत जीवात्मारूपी प्रजा के लिये ही बनाई है। हम संसार में सुखों का भोग करते हैं जिसका आधार परमात्मा व उसकी सृष्टि ही है। हमारा शरीर भी हमें परमात्मा से ही प्राप्त होता है। सभी प्रकार के अन्न व भोजन आदि भी हमें परमात्मा द्वारा बनाये चराचर जगत से ही प्राप्त होते हैं। अतः हमारा कर्तव्य होता है कि हम ईश्वर का ध्यान करें, उसे जानें, वेदाध्ययन करें, वेद में प्रस्तुत ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानकर उसकी उपासना करें और सदा उसके कृतज्ञ बने रहे। ईश्वर का ध्यान करने से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। उसकी आत्मा को ज्ञान प्राप्त होता है व उसमें उत्तरोत्र वृद्धि होती है, बल की प्राप्ति होती है, सद्प्रेरणायें मिलती हंै तथा ईश्वर उपासकों की रक्षा करता है। ईश्वर की उपासना से मनुष्य दुःखों से छूटकर सुखों को प्राप्त होते हैं। ऐसे अनेकानेक लाभ ईश्वर का सत्यज्ञान प्राप्त कर उसकी उपासना करने से होते हैं।
ईश्वर ने ही हमें यह श्रेष्ठ मानव शरीर दिया है। वही हमें परजन्मों में भी हमारे कर्मों के अनुसार जन्म, जीवन व आत्मा को सुख प्रदान करने वाले शरीर आदि देगा। यह क्रम अनन्त काल तक चलना है और हम अनादि व अमर होने के कारण ईश्वर से अनन्त काल तक वर्तमान जीवन के समान लाभान्वित होंगे। ईश्वर के जीवात्माओं पर इतने अधिक उपकार हैं कि कोई भी मनुष्य ईश्वर के उपकारों की गणना नहीं कर सकता। अतः ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होकर उसका ध्यान व उपासना करना तथा सभी प्रकार के अज्ञान, अन्धविश्वासों व पाखण्डों से दूर रहना हम सब मनुष्यों का कर्तव्य होता है। हमें सावधान रहकर अपने कर्तव्यों को जानकर उनका पालन करना चाहिये। ऐसा करने से ही हम ईश्वर की सत्य उपासना करते हैं और इससे हमें जीवन में ज्ञान, सुख, धन, सम्पत्ति, जीवनोन्नति तथा ईश्वर साक्षात्कार आदि ऐश्वर्यों की प्राप्ति होती है। यही सब ऐश्वर्य मनुष्य के लिये जीवन में प्राप्तव्य होते हैं। मनुष्य को ईश्वर उपासना सहित अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का भी नित्य प्रति सेवन करना चाहियें। इसके लिये हमें सत्यार्थप्रकाश, पवंचमहायज्ञविधि, संस्कारविधि आदि ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये जिससे हमें पंचमहायज्ञों तथा यज्ञमय जीवन पद्धति का परिचय व ज्ञान हो सकेगा।
परमात्मा ने मनुष्य को दूसरे प्राणियों पर उपकार करने के लिये बनाया है। हमें ध्यान रखना होता है कि हमारे किसी कर्म से किसी भी प्राणी को अकारण पीड़ा न हो। अहिंसा का अर्थ भी वैर त्याग तथा दूसरे प्राणियों को अपने समान समझकर उरसे प्रेम व सत्कार का व्यवहार करने से पूरा व सिद्ध होता है। शाकाहार से किसी प्राणी को पीड़ा नहीं होती जबकि मांसाहार करने से जिन प्राणियों के मांस का भक्षण किया जाता है, उन्हें अकारण असहनीय पीड़ा होती है। वेदों में मांस भक्षण का विधान कहीं नहीं है। वेद विरुद्ध व्यवहार व कार्य सब मनुष्यों के लिए अकर्तव्य होते हैं। ज्ञान व विज्ञान के अनुरूप मनुष्य के स्वस्थ जीवन के लिए शाकाहार ही उत्तम भोजन होता है। शाकाहारी प्राणियों का जीवन मांसाहारी प्राणियों की तुलना में अधिक लम्बा होता है। हाथी व अश्व आदि बलशाली प्राणी शाकाहारी ही होते हैं। मांसाहार से अनेक रोगों की सम्भावना होती है। मांसाहार ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध अकर्तव्य एवं पापकर्म होता है जिसका फल मनुष्य को परमात्मा की न्याय व्यवस्था से जन्म जन्मान्तरों में भोगना पड़ता है।
हमारे महापुरुष श्री राम, श्री कृष्ण तथा ऋषि दयानन्द जी शाकाहारी थे तथा अपूर्व ज्ञान व बल से सम्पन्न थे। हनुमान तथा भीष्म पितामह भी अतुल बलशाली थे और भोजन की दृष्टि से शाकाहारी ही थे। अतः मनुष्यों को मांसाहार का त्यागकर शाकाहार को ही अपनाना चाहिये। यही जीवन सुख व उन्नति का आधार होता है। यदि हम अपने जीवन को यज्ञमय व शाकाहार से युक्त रखेंगे तो निश्चय ही हमारा कल्याण होगा। इसी कारण से हमें सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिये। अपने सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहियें। ऐसा करेंगे तो निश्चय ही हमें मांसाहार का त्याग करना होगा और शाकाहार को अपनाना होगा। हमें सत्य मार्ग वेदपथ पर चल कर अपने जीवन को उन्नत व इसके प्रयोजन मोक्ष प्राप्ति को सिद्ध करने वाला बनाना चाहिये। इसी लिये परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाकर आरम्भ में ही मनुष्यों को वेदज्ञान दिया था। वेद अध्ययन व अध्यापन करने के ग्रन्थ हंै। हम इनका जितना अध्ययन करेंगे उतना ही अधिक लाभ प्राप्त करेंगे और यदि अध्ययन नहीं करेंगे तो ईश्वर की आज्ञा भंग करने वाले होंगे। अतः हमें वेदाध्ययन व वेदों का स्वाध्याय करते हुए अपने जीवन को यज्ञमय बनाकर तथा शाकाहारी भोजन करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये। यही जीवन पद्धति श्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। हमें सर्वोत्तम को ही अपनाना व आचरण में लाना चाहिये। वेदों का अध्ययन व वेदों के अनुसार ही आचरण करना सब मनुष्यों का ईश्वर प्रदत्त धर्म व कर्तव्य है। हमें इसे जानना चाहिये और इसी को अपनाना चाहिये जिससे हमें सुखों की प्राप्ति होने सहित जन्म जन्मान्तरों में हमारा कल्याण हों।
-मनमोहन कुमार आर्य
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Thursday 15 October 2020
“यज्ञमय शाकाहार युक्त वैदिक जीवन ही सर्वोत्तम जीवन है”
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