सिख धर्म के संस्थापक महान संत श्री श्री गुरु नानक देव जी: रामदुलार यादव




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साहिबाबाद। भगवान, बुद्ध, संत शिरोमणि रविदास के बाद भारतीय समाज, हिन्दू धर्म की कुरीतियों, रूढिवाद पाखंडवाद को सबसे अधिक अपने विचार दर्शन, चिन्तन मनन से यदि किसी ने प्रभावित कर नई राह दिखाई वह परम आदरणीय महान संत परम पूज्य गुरु नानक देव जी महाराज थे, जिनका जन्म हिन्दू धर्म में हुआ था, लेकिन अंध विश्वास, मूर्तिपूजा पाखण्ड का खण्डन करते हुए, सिख धर्म की सस्थापना की। समाज में व्याप्त विषमता, छुआछूत के समूलनाश के लिए अलख जगाते रहे। वह हिन्दू मुसलमान के साथ भेदभाव के विरोधी थे तथा सभी को एक ही ईश्वर की सन्तान मानते थे। उन्होंने हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म में व्याप्त आडम्बर का विरोध किया। नारी को समान अधिकार दिलाने पर जोर दिया।


आप का जन्म कार्तिक पूर्णिमा के दिन 1469 में तलवण्डी शहर में हिन्दू परिवार में हुआ जो आज पाकिस्तान में है। आज यह स्थान ननकाना के नाम से गुरुनानक देवजी के कारण जाना जाता है उनके पिता कालू और माता तृप्ता इनकी विलक्षण प्रतिभा तथा चिन्तन मनन की प्रवृत्ति से चिन्तित रहते थे तथा इनके व्यवाहर से असहज अनुभव करते थे। इनके साथीगण जब खेलकूद में व्यस्त रहते तब भी गुरुनानक देवजी ध्यान मग्न हो जाया करते थे। पिता कालजी ने इन्हें किसानी पशुपालन के काम में लगाना चाहा कि गरुनानक जी का ध्यान अध्यात्म से हट जाय, तथा सांसारिक कार्य में व्यस्त हो जाय, उन्हें पशुओं के चराने में लगा दिया एक दिन वह पशुओं को चारागाह में ले गये तथा वहीं ध्यान मग्न हो गयेपशुओं ने दूसरे के खेत में जाकर फसल को नुकसान पहुंचा दिया जब वे घर लौटे तो पिता ने इन्हें खरी खोटी सुनाईलेकिन मुखिया जब खेत देखने गया तो फसल जैसे पहले थी वैसे ही लहलहा रही थी अब इनके निकट लोगों को यह आभास होने लगा कि यह कोई साधारण मानव नहीं बल्कि असाधारण प्रतिभा के धनी है, अब इनके पिता ने घोडे का व्यापार करने के लिए आपको 20/- दिये जब यह रुपये लेकर जा रहे थे तो रास्ते में कुछ संत महात्मा जरूरतमंद लोग मिले वे कई दिन से भूख, प्यास से त्रस्त थेगुरूनानक देव जी ने सारे रूपये उनकी सेवा में खर्च कर दिये तथा घर लौट आये जब पिता ने पूछा कि सौदा करके आये तो उन्होंने कहा कि सच्चा सौदा करके आया हूँ जब उनके पिता जी घटना से अवगत हुए तो वे कुछ भी कह न सके। वह जान गये कि गुरूनानक देव जी दूसरे की दुख  दर्द पीड़ा को हरण करने तथा जरूरत मंद की सेवा के लिए प्रकट हुए है। गुरूनानकदेव को गृहस्थ आश्रम में रहने के लिए इनके पिता ने एक और प्रयास किया तथा अपनी पुत्री और दामाद को इनका विवाह कार्य सम्पन्न करने के लिए प्रेरित किया, सुलक्खनी जी से इनका विवाह हुआ तथा इनके दो पुत्र भी हुए लेकिन गृहस्थ में रहते हुए भी आध्यात्मिक गति विधियों में कोई व्यवधान नहीं हुआ। 1499 में बाला, मरदाना के साथ हिन्दू मुस्लिम धर्म स्थलों की यात्रा की देश विदेश में अपने आधुनिक और तर्क संगत विचार का प्रचार-प्रसार करते रहे उन्होंने कहा मानव –मानव एक हैं उसमें कोई ऊँच नीच नहीं है। समानता का संदेश दिया। गुरूनानक देव भी अपनी बात को तर्क की कसौटी पर कस कर कहने के सिद्ध संत थे, हरिद्वार में श्राद्ध के दिन पुरोहितों के पानी देने के प्रकरण को पश्चिम मुंह करके दोनों हाथों से जल देने के कारण लोगों ने कहा कि यह आप क्या कर रहे है। गुरूनानक देव जी ने उन्हीं से पूछा कि आप, हम सूर्यदेव व अपने पितरों को जल दे रहे है गुरूनानक देव जी ने फिर कहा जहां आप जल पहुंचाना चाहते है उसकी दूरी कितनी है पुरोहित ने कहा लाखों किमी0 तभी गुरूनानकदेव जी ने यह कहकर उसे निरूत्तर कर दिया कि हम अपने खेत पंजाब में पानी पहंचा रहे है जब आप लाखों किमी० पानी पहुंचा सकते है तो हमारा खेत तो केवल 300 किमी0 दूर है अन्ध विश्वास, पाखंण्ड पर गहरी चोट की।


गुरूनानकदेव जी ने हिन्दू धर्म में फैली कुरीतियों का सदैव घोर विरोध किया। वे महान संत ही नहीं बल्कि सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक स्थितियों पर भी पैनी दृष्टि रखते थेउन्होंने नारी के सम्मान में उल्लेखनीय कार्य किया आज उसी का परिणाम है कि सिख व पंजाबी समाज में महिलाओं को विशेष आदर, मान-सम्मान प्राप्त हैं गुरूनानकदेव जी की वाणी, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य से ओतप्रोत है। उन्होंने मूर्ति पूजा निरर्थक है, परमात्मा सर्वशक्मिान सत्य स्वरूप एक है वह सर्वय व्याप्त है ज्ञान मार्ग पर चलने का संदेश दियाउन्होंने छुआछूत मिटाने के लिए लंगर की व्यवस्था दी जिसमें संगत पंगत में प्रसाद वितरण किया जाता था, वह आज भी सिख समाज में प्रचलन में है सभी बराबर है एक साथ भोजन करते है इससे आपस में प्रेम और सहयोग की भावना जागृत होती हैउनके उपदेश आज भी प्रसांगिक हैईमानदारी परिश्रम से कमाई करो, किसी को कष्ट न दें। अपनी नेक कमाई से जरूरतमंदों, कमजोर वर्गों की सेवा करो। पुरूष, स्त्री समान है उनसे समता का व्यवहार करो, अंहकार, लोभ, लालच, संग्रह वृत्ति का परित्याग करने का पूरा प्रयास करो। स्वयं के जन-जन तथा देश विदेश में संत कबीर के विचारों का प्रचार-प्रसार करते हुए दान, उपासना का संदेश देते हुए 1539 में शरीर त्याग दिया। हम गुरूनानकदेव जी महाराज के बताए रास्ते पर चलकर ही देश, समाज में सद्भाव, भाईचारा, प्रेम, सहयोग के साथ रह सकते हैं तथा हम किसी के दुख में उसके दर्द और पीड़ा का अनुभव करते हुए उसके कष्ट को दूर करने का प्रयास करे। तब ही 'प्रकाश-पर्व' को सार्थक बना सकेंगे।


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