ऋषि दयानन्द सरस्वती जी का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ देश देशान्तर में प्रसिद्ध ग्रन्थ है। ऋषि दयानन्द ने इस ग्रन्थ को क्यों लिखा? इसका उत्तर उन्होंने स्वयं इस ग्रन्थ की भूमिका में दिया है। उन्होंने लिखा है कि ‘मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाये। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त रहता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश या लेख द्वारा सब मनुष्चों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हितअहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।’ इसी क्रम में ऋषि दयानन्द ने भूमिका में ही यह भी कहा है कि ‘मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस ग्रन्थ (सत्यार्थप्रकाश) में ऐसी बात नहीं रक्खी है ओर न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।’
ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना सत्य सत्य अर्थ का प्रकाश करने के लिए की है। यह इसलिये आवश्यक हुई है कि उनके समय में संसार में अनेकानेक मत-मतान्तर प्रचलित थे जिसमें सत्य को असत्य व असत्य को सत्य माना जाता था। आवश्यकता थी कि सत्य व असत्य दोनों को मनुष्यों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाये जिससे लोग सत्य व असत्य को जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कर अपनी आत्मा व जीवन की उन्नति कर सकें। ऐसा करना इसलिए आवश्यक था क्योंकि सत्य के ज्ञान, इसके ग्रहण व धारण सहित सत्य के आचरण व पालन करने से ही मनुष्य की उन्नति और ऐसा न करने से पतन होता है। असत्य के प्रसार से मनुष्य सहित समाज व देश को भी हानि होती है। अतः सत्य का उद्घाटन करने तथा असत्य को भी जन साधारण को बताने के लिये ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की रचना की थी। इसको इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ऋषि दयानन्द ने अविद्या का नाश कर विद्या की वृद्धि करने के लिये इस ग्रन्थ की रचना की जिससे सभी समुदायों व सम्प्रदायों के लोग लाभान्वित हो सकें और अपने अपने जीवन की उन्नति कर सकें। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में चैदह समुल्लासों में अपनी समस्त सामग्री को प्रस्तुत किया है। 10 समुल्लास पूर्वार्द्ध में हैं जिनमें वैदिक मान्यताओं को प्रस्तुत कर उनका मण्डन किया गया है। यह सभी मान्यतायें उन्हें स्वीकार्य थी और ऐसा ही सबको करना चाहियें क्योंकि यह मान्यतायें ईश्वर के ज्ञान वेदों पर आधारित हैं। ईश्वर ने ही अपने सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता तथा सर्वशक्तिमतता से इस सृष्टि को बनाया है तथा वही इसका पालन पोषण कर रहा है। ईश्वर को सृष्टि बनाने व चलाने का पूरा पूरा ज्ञान है। अतः उसका प्रदान किया हुआ वेदज्ञान सर्वांश में सत्य तथा अविद्या आदि दोषों से सर्वथा मुक्त है। सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के चार समुल्लास में स्वदेशीय तथा नास्तिक, बौद्ध व जैन मतों की समीक्षा सहित ईसाई व यवन मत की प्रमाणों के साथ परीक्षा व समीक्षा की गई है। इससे यह लाभ होता है कि साधारण मनुष्य इसे पढ़कर सत्य को प्राप्त हो सकते हैं और वह अपने विवेक व हिताहित का विचार कर असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण कर अपने जीवन को सार्थक व सुखी कर सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश की समाप्ति पर ऋषि दयानन्द ने परिशिष्ट रूप में ‘स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश’ के अन्तर्गत वेदों पर आधारित अपने 51 सत्य सिद्धान्तों को संक्षिप्त परिभाषा देकर प्रस्तुत किया है। इसमें मनुष्य, ईश्वर, वेद, धर्म, अधर्म, जीव, ईश्वर-जीव सम्बन्ध, अनादि पदार्थ, सृष्टि का प्रवाह से अनादि होना, सृष्टि, सृष्टि रचना का प्रयोजन, बन्धन, मुक्ति, मुक्ति के साधन आदि कुल 51 विषयों को परिभाषित किया गया है।
ऋषि दयानन्द को सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखने की आवश्यकता इसलिए हुई क्योंकि सभी मत-मतान्तर एक दूसरे का विरोध करते थे और प्रायः सभी में असत्य व अविद्या से युक्त मान्यतायें, कथन व सिद्धान्त विद्यमान थे। बहुत सी आवश्यक ज्ञान पूर्ण बातों का मत-मतान्तरों की शिक्षाओं में अभाव भी था। इस आवश्यकता को ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखकर पूरा किया है। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में ईश्वर के एक सौ से अधिक नामों की व्याख्या है। दूसरे समुल्लास में बाल शिक्षा तथा भूत प्रेत निषेद्ध का वर्णन किया गया है। तृतीय समुल्लास में अध्ययन-अध्यापन, गुरुमन्त्र व्याख्या, प्राणायाम, सन्ध्या व अग्निहोत्र, उपनयन, ब्रह्मचर्य उपदेश, पठन पाठन की विशेष विधि, ग्रन्थों के प्रमाण व अप्रमाण का विषय तथा स्त्री व शूद्रों के अध्ययन व अधिकार आदि का विषय विस्तार से प्रस्तुत किया है। चतुर्थ समुल्लास में समावर्तन, विवाह, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार वर्णव्यवस्था, स्त्री पुरुष व्यवहार, पंचमहायज्ञ, पाखण्डियों के लक्षण, गृहस्थधर्म, पण्डित के लक्षण, मूर्ख मनुष्यों के लक्षण, पुनर्विवाह, नियोग आदि विषयों का सयुक्तिक प्रमाणिक विवरण है। पांचवे समुल्लास में वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम पर प्रकाश डाला गया है। छठे समुल्लास में राजधर्म, दण्ड व्यवस्था, राजपुरुषों के कर्तव्यों, युद्ध, देश की रक्षा, कर ग्रहण तथा व्यापार आदि का वर्णन है। सातवें समुल्लास में ईश्वर, ईश्वर स्तुति, प्रार्थना, उपासना सहित ईश्वरीय ज्ञान, ईश्वर के अस्तित्व, जीव की स्वतन्त्रता तथा वेदों के विषयों पर वैदिक मान्यताओं को प्रस्तुत कर युक्ति एवं तर्कों के साथ उनका पोषण किया गया है। सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति, मनुष्यों की आदि सृष्टि के स्थान का निर्णय, आर्य मलेच्छ व्याख्या तथा ईश्वर के द्वारा जगत को धारण करने का विषय प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थ के नवम् समुल्लास में विद्या तथा अविद्या एवं बन्ध व मोक्ष विषय को प्रस्तुत किया गया है। दसवें समुल्लास में आचार व अनाचार तथा भक्ष्य व अभक्ष्य पदार्थों की सारगर्भित व्याख्या की गई है। इन दस समुल्लासों में जो ज्ञान है, ऐसा ज्ञान संसार के किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता। इस कारण यह ग्रन्थ संसार का दुर्लभ, महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रन्थ है जिसमें मनुष्य के लिए जानने योग्य उन सभी बातों का जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती, उन सबका प्रामाणिक वर्णन किया गया है। सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्द्ध के चार समुल्लासों में संसार के प्रायः सभी मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों को प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा व विद्या के आधार सत्यासत्य का विवेचन किया गया है। इसका कारण जन साधारण को सत्य व असत्य का ज्ञान कराना व सत्य का ग्रहण करने में सहायता करना है।
सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के लेखन व प्रचार से ही मत-मतान्तरों की अविद्या कुछ कम व कुछ दूर हुई है। वर्तमान में सत्यार्थप्रकाश का पाठक ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप सहित इनके गुण, कर्म व स्वभावों से भी परिचित है। सृष्टि उत्पत्ति का प्रयोजन तथा सृष्टि के उपादान तथा निमित्त कारण का भी हमें ज्ञान है। उपासना की आवश्यकता तथा उपासना की विधि सहित उपासना से होने वालें लाभों का ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर प्राप्त होता है। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था सहित जन्मना जाति प्रथा की निरर्थकता का बोध भी होता है। विवाह क्यों किया जाता है व विवाह में वर वधु का चयन करते समय किन बातों को ध्यान में रखना चाहिये, इसका ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाश कराता है। सत्यार्थप्रकाश से जिन विषयों का ज्ञान होता है उनका उल्लेख लेख में किया जा चुका है। इसका पूरा ज्ञान तो सत्यार्थप्रकाश को एकाग्रता से पढ़कर ही किया जा सकता है। सत्यार्थप्रकाश की प्रमुख विशेषता यह भी है इसमें विद्या तथा अविद्या एवं बन्धन व मोक्ष का विस्तार से वर्णन किया गया है। ऐसा वर्णन संसार के किसी ग्रन्थ व मत-पन्थों के ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता। बन्धन व मोक्ष का वर्णन पूर्णतः तर्क एवं युक्तियों पर आधारित है। अतः सत्यार्थप्रकाश धर्म संबंधी सभी विषयों पर वेद प्रमाणों सहित वेदानुकूल ऋषियों के वचनों एवं तर्क तथा युक्तियों के द्वारा विषय का प्रतिपादन करता है। सत्यार्थप्रकाश के सभी विचार व सिद्धान्त अकाट्य हैं। आज का भारत मध्यकाल की तुलना में अति विकसित एवं ज्ञान विज्ञान सम्पन्न है। इस उन्नति में ऋषि दयानन्द एवं सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का उल्लेखनीय योगदान है। यदि ऋषि दयानन्द न आते और ज्ञान व विज्ञान से युक्त सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद आंशिक तथा यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य आदि ग्रन्थों का लेखन न करते तो आज का संसार ज्ञान विज्ञान व सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से जितना विकसित आज है, उतना विकसित सम्भवतः न होता। संसार से अविद्या दूर करने में सत्यार्थप्रकाश ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और जो अविद्या शेष है, वह भी सत्यार्थप्रकाश सहित वेदों के प्रचार से ही दूर होगी। इसके लिये हम ऋषि दयानन्द व उनके ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का अभिनन्दन करते हुए ऋषि को सादर नमन करते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
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