“मनुष्य को परमात्मा से श्रेष्ठ बुद्धि तथा दुर्गुणों को दूर करने की प्रार्थना करनी चाहिये”



हमें मनुष्य जीवन परमात्मा से मिला है। परमात्मा ने ही जीवात्माओं के लिए इस सृष्टि को उत्पन्न किया है। हम जो सूर्य, चन्द्र, पृथिवी तथा आकाश में में तेजस्वी नक्षत्रों को देखते हैं उन सबको सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा ने ही सृष्टि के आदिकाल में उत्पन्न किया था। ईश्वर अनादि तथा नित्य सत्ता है। वह अविनाशी एवं अमर है। तीन कालों भूत, वर्तमान तथा भविष्य काल में उसका कभी अभाव व नाश नहीं होता। वह कभी किसी विकार को प्राप्त नहीं होता। ईश्वर ही अनादि काल से इस सृष्टि की रचना कर रहा है और उसने अनन्त बार इस सृष्टि को बनाया है तथा इसकी प्रलय भी की है। यदि प्रलय न हो तो नई सृष्टि नहीं बन सकती। सृष्टि में ह्रास का सिद्धान्त भी दृष्टिगोचर होता है। जो चीजें बनती हैं व समय के साथ पुरानी होकर जीर्ण हो जाती है और फिर उनसे वह उपयोग नहीं लिया जा सकता जिसके लिए उनको आरम्भ में बनाया जाता है। सृष्टि भी समय के साथ पुरानी होने से जीर्ण हो जाती है। इसकी भी अपनी एक निधारित आयु होती है। परमात्मा सृष्टि को बनाकर एक कल्प अवधि 4 अरब 32 करोड़ वर्षों बाद इसकी प्रलय करते हैं। प्रलय अवस्था भी 4 अरब 32 करेाड़ वर्ष तक ही रहती है। इसके बाद सृष्टि की पुनः रचना होती है। ईश्वर जिस पदार्थ से सृष्टि को बनाते हैं वह प्रकृति नामक पदार्थ है। यह भौतिक व जड़ पदार्थ होता है जिसमें तीन गुण सत्व, रज व तम होते हैं। इनका विकार होकर ही सृष्टि के परमाणु व अणु बनते हैं जिनसे सृष्टि के सभी पदार्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी सहित अग्नि, वायु, जल आदि तथा मनुष्यों के शरीर व उनके अन्तः व बाह्य अंग बनते हैं। सृष्टि मे परमात्मा की सत्ता यथार्थ सत्ता है। जिस प्रकार से हमारी आत्मा का अस्तित्व है, हम इसे स्वीकार भी करते हैं, उसी प्रकार से परमात्मा का भी अस्तित्व सत्य व यथार्थ है। परमात्मा अपने गुणों व कार्यों के द्वारा जाना जाता है। इस सृष्टि को बनाकर इसको नियमों का पालन कराते हुए संचालन करने से इसके रचयिता, नियामक तथा पालक परमात्मा का उसके इन गुणों से प्रत्यक्ष होता है। परमात्मा ने इस सृष्टि को क्यों बनाया है, इसका भी हमें ज्ञान होना चाहिये।

परमात्मा ने इस सृष्टि को अपनी अनादि व शाश्वत प्रजा जीवात्माओं के लिये बनाया है। जिस प्रकार पिता व माता अपनी सन्तानों को आश्रय व सुख देने के लिये आवासीय भवन बनाते हैं, उसी प्रकार से परमात्मा ने भी अपनी सन्तान रूपी प्रजाओं के सुख व अपवर्ग के लिये इस समस्त सृष्टि को बनाया है। मनुष्य के शरीर में जो जीवात्मा है वह भी एक अनादि, नित्य, अजर, अमर, अभौतिक, चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, ज्ञान व कर्म की शक्ति से युक्त, जन्म-मरण धर्मा, शुभ व अशुभ कर्मों को करने वाली तथा न्यायाधीश परमात्मा की व्यवस्था के अनुसार अपने सभी कर्मों का फल भोगने वाली सत्ता है। जीवत्मा एकदेशी, ससीम तथा अल्पज्ञ चेतन सत्ता है। अतः इसे ज्ञान प्राप्ति के लिए माता, पिता सहित आचार्य के रूप में अन्य मनुष्यों की आवश्यकता होती है। माता, पिता तथा आचार्य भी मनुष्य ही बनते हैं। उनको भी ज्ञान प्राप्ति के लिये आचार्य एवं माता-पिता की आवश्यकता होती है। सृष्टि के आरम्भ में माता, पिता तथा आचार्य नहीं होते। उनको ज्ञान सर्वज्ञ अर्थात् सर्व ज्ञान से युक्त चेतन सत्ता परमात्मा से ही प्राप्त होता है। परमात्मा का वह ज्ञान वेद है जो परमात्मा सृष्टि के आदि में चार ऋषियों को उत्पन्न कर उनकी आत्मा में स्थापित करते हैं। वह ऋषि उस वेद ज्ञान की रक्षा करते हुए इसको ब्रह्मा जी को प्रदान करते हैं और इन ऋषियों से ही वेद के स्वाध्याय, अध्ययन, अध्यापन व प्रचार की परम्परा आरम्भ होती है। इसी प्रकार से वेद ज्ञान सृष्टि के आरम्भ से चलकर वर्तमान में 1 अरब 96 अरब वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी हम को परम्परा से प्राप्त हुआ है। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने सहित सब सत्य विद्याओं से युक्त है। वेदों का अध्ययन व ज्ञान प्राप्त कर इसकी सहायता से सभी प्रकार के सम्भव कार्यों को करते हुए ज्ञान की उन्नति कर मनुष्य जीवन को सुखी बना सकता है। परमात्मा सत्कर्मों का प्रेरक होता है। वह सत्यस्वरूप होने से सत्य के विपरीत अशुभ व पाप कर्मों का निषेध करता है तथा जो उसकी अवज्ञा करते हैं, उनको दण्ड देता है। सब मनुष्यों व प्राणियों को सुख तभी प्राप्त हो सकता है कि जब सब सत्य नियमों सहित वेदज्ञान का पालन करें। मनुष्य जन्म शुभ कर्मों की अधिकता तथा मनुष्येतर इतर योनियां पाप कर्मों की अधिकता होने पर प्राप्त होती हैं। मनुष्य का जीवन परमात्मा से पूर्व जन्मों के कर्मों का भोग करने तथा नये शुभ कर्म कर अक्षय सुख मोक्ष को प्राप्त करने के लिये मिलता है। यह मोक्ष सुख वेद विहित कर्मों को सफलतापूर्वक करने पर प्राप्त होता है। मोक्ष प्राप्ति के कर्मों वेदज्ञान की प्राप्ति, ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञादि कर्म करना, माता-पिता की सेवा, आचार्यों की सेवा, विद्वान अतिथियों की सेवा सहित सभी पशु पक्षियों एवं इतर प्राणियों के प्रति सद्भाव व सहानुभूति का भाव रखना तथा उनको उनके जीवनयापन में सहायक होना होता है। इसके विपरीत हम जो भी कार्य करते हैं उससे हम बन्धन में पड़कर आवागमन वा जन्म व मरण के चक्र में फंसते हैं। विद्या को प्राप्त होकर तथा विद्या के अनुसार कर्म करने से ही मनुष्य आवागमन से मुक्त होकर सुदीर्घ अवधि के अक्षय सुख मोक्ष को प्राप्त करता है। 

मनुष्य को अपने जीवन वा आत्मा की उन्नति के लिये ज्ञान प्राप्त करना होता है। इसके लिये उसे ज्ञानस्वरूप परमात्मा से श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना करनी चाहिये। इस कार्य की पूर्ति गायत्री मन्त्र का जप व पाठ करने से होती है। गायत्री मन्त्र का अर्थ व भाव सहित पाठ करना चाहिये। इसे बोलकर व मौन रहकर मन से जप करते हुए भी मन्त्रार्थ की भावना बनाकर किया जा सकता है। गायत्री मन्त्र के शब्द हैं ‘ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।’ इस मन्त्र का अर्थ है- ओ३म् निज व मुख्य नाम वाला सर्वव्यापक व सर्वज्ञ परमात्मा हमारे प्राणों का भी प्राण, दुःखनाशक एवं सुखस्वरूप है। हम उस सकल जगत् के उत्पादक प्रभु के ग्रहण करने योग्य विशुद्ध तेज को धारण करें। वह प्रभु हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करे। जब हम शरीर को बाह्य रूप से शुद्ध करके तथा अपने अन्तःकरण को भी ईश्वर भक्ति के शुभ विचारों से शुद्ध व युक्त करके गायत्री मन्त्र से बार बार प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर हमारी बुद्धि को सत्यज्ञान प्राप्त कराने सहित सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा करते हैं। इससे मनुष्य के जीवन की उन्नति होती है। मन्त्र पाठ करते हुए हमें उसके अर्थ को भी जानना होता है और मन्त्र के अर्थ के अनुसार ही क्रियायें भी करनी होती है। ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें इसके लिये हमें विद्वानों के उपदेश व वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय से भी अपना ज्ञान बढ़ाना चाहिये। ऐसा करने से सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमात्मा अवश्य हमें हमारी आत्मा में सद्ज्ञान देते व हमारी बुद्धि को सत्य व उत्तम मार्ग में प्रेरित करते हैं। 

मनुष्य को अपने जीवन को उन्नत करने के लिये एक अन्य उत्तम प्रार्थना भी करनी चाहिये। यजुर्वेद का 30.3 मन्त्र हमें दुर्गुणों का त्याग करने तथा श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव को धारण करने की प्रेरणा करता है। मन्त्र इस प्रकार है ‘ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।।’ इसका ऋषि दयानन्द कृत अर्थ है ‘हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त शुद्धस्वरूप, सब सुखें के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।’ यदि हम इस मन्त्र के पाठ सहित इस प्रार्थना को प्रतिदिन कई बार करते हैं तो इससे हमारी आत्मा व शरीर पर प्रभाव पड़ता है। परमात्मा भी हमारा सहायक होता है और वह प्रार्थना के अनुरूप हमें उत्तम प्रेरणायें करता है जिससे हमारे जीवन में दुर्गुण, दुव्र्यसन व दुःख दूर हो जाते हैं और हमारी शारीरिक तथा आत्मिक उन्नति होकर हमें सुख प्राप्त होता है। वेदों के सभी मन्त्रों में उत्तमोत्तम प्रार्थनायें हैं। हमने प्रतीक व नमूने के रूप में दो मन्त्र प्रस्तुत किये हैं। इनका सेवन करने मात्र से मनुष्य की उन्नति होना निश्चित होता है। अतः हमें अपना मनुष्य जीवन को सफल करने के लिये श्रेष्ठ बुद्धि सहित दुर्गुणों के त्याग तथा सद्गुणों की प्राप्ति के लिये प्रातः व सायं परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिये। इससे हमारा कल्याण होगा। हमें वेद विहित पंचमहायज्ञों का भी नित्य सेवन करना चाहिये। वेदों तथा ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये और वेद मन्त्रों के अर्थों का चिन्तन व मनन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का स्वाध्याय जीवन की सभी भ्रान्तियों व अविद्या को दूर कर मनुष्य को विद्या से युक्त करता है। ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उसकी उपासना भी सबको प्रतिदिन प्रातः व सायं करनी चाहिये।

-मनमोहन कुमार आर्य

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