मनुष्य का जीवन शुद्ध व पवित्र होना चाहिये। शुद्ध एवं पवित्र जीवन के अनेक लाभ होते हैं। इससे आत्मा आस्तिक, बलवान तथा शुभ कर्मों को करने में प्रवृत्त होने के साथ अशुभ व पाप कर्मों को करने से दूर भी होता है। मनुष्य जीवन हमें परमात्मा से प्राप्त हुआ है जो स्वयं में एक शुद्ध एवं पवित्र सत्ता है। परमात्मा जो कार्य करते हैं वह सभी शुभ, शुद्ध व पवित्र ही होते हैं। अतः उनकी सन्तान होने के कारण हमारा भी कर्तव्य है कि हम भी उनके अनुरूप व उनकी वेदाज्ञानुसार सत्य पर आधारित अपने सभी कर्मों को शुद्ध व पवित्र होने पर ही करें तथा अशुभ, अशुद्ध व अपवित्र कर्मों का त्याग कर दें। ऐसा करने से हमें वर्तमान जीवन सहित दूरगामी लाभ होंगे। हमारी आत्मा व जीवन की उन्नति होगी। परजन्मों में भी हम श्रेष्ठ मनुष्य योनि में जन्म लेंगे। ऐसा करने पर हमें प्रत्येक जन्म में धार्मिक माता, पिता, आचार्य व मित्र आदि प्राप्त होंगे। यदि हमारे कर्म शुद्ध व पवित्र नहीं होंगे तो हमारे इस जीवन में हमारे कर्मानुसार अधिक कष्ट व दुःख आ सकते हैंै। इससे हमारा भावी परजन्म व उसके बाद के जन्म भी कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार प्रभावित होकर हमें उन योनियों में जन्म मिल सकता है जहां सुख कम तथा दुःख, दारिद्रय व आत्मा को मलिन बनाने वाले कार्य करने पड़ सकते हैं।
मनुष्य का अर्थ होता है कि बहुत ही सोच विचार कर अर्थात् चिन्तन, मनन, विचार आदि को करके कर्म करने का निर्णय करने वाला सत्य पर आधारित कर्म करने वाला व्यक्ति। मनन करने पर यह निश्चित होता है कि मनुष्य को सत्य पर आधारित शुभ कर्मों का ही सेवन करना चाहिये। सत्य का आचरण ही मनुष्य का धर्म होता है। इसी को वैदिक धर्म भी कहते हैं। ऋषि दयानन्द ने कहा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है तथा वेद का पढ़ना व पढाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यों वा आर्यों का परम धर्म है। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक इस कारण से है यह सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से प्राप्त ज्ञान है। परमात्मा सत्यस्वरूप हैं। अतः उनका ज्ञान भी सत्य से युक्त तथा असत्य से पृथक व वियुक्त होना सिद्ध होता है। ऋषि दयानन्द ने वेदों की परीक्षा की थी और वेदों को सत्य से युक्त पाया था। उन्होंने वेदों का भाष्य करने के साथ वेदों की मान्यताओं के आधार पर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय तथा पंचमहायज्ञविधि आदि अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। इन ग्रन्थों की परीक्षा करने पर भी यह सत्य ही पाये गये हैं। वेदों में परमात्मा ने जो आज्ञायें व शिक्षायें दी हैं उन सबमें सत्यकर्मों का ही विधान किया गया है जिसको हम विचार कर पुष्टि कर सकते हैं। अतः हमें अपने हित सहित दूसरों के हित व सुख के लिये भी सद्कर्म ही करने चाहिये। सद्कर्मों को करने में सबसे अधिक सहायक वेदों तथा वेदानुकूल शास्त्रों व ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित पंचमहायज्ञों जिनमें सन्ध्या व देवयज्ञ अग्निहोत्र प्रथम व द्वितीय स्थान पर आते हैं, मुख्य स्थान है। मनुष्य को संगति भी सत्पुरुषों, सच्चे विद्वानों तथा देश व समाज के हितैषी बन्धुओं की ही करनी चाहिये। ऐसा करने से हमारा निश्चय ही कल्याण होगा, यह विचार करने पर ज्ञात होता है। हमने देखा है कि वेद और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, महात्मा आनन्द स्वामी आदि विद्वानों का जीवन महान बना है और यह सभी विद्वान अपने जीवन में महान कार्य कर गये हैं।
सन्ध्या ईश्वर के उपकारों को स्मरण कर उनका धन्यवाद करने के लिये की जाती है। सत्यार्थप्रकाश तथा वेदों के भाष्य का अध्ययन करने पर मनुष्य को ईश्वर के हमारी आत्मा पर अनादि काल से अनन्त उपकारों का ज्ञान होता है। मनुष्य जिससे उपकृत होता है उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना आवश्यक होता है। ईश्वर के हम पर अनन्त उपकार हैं। ईश्वर ने हम सब जीवों के लिये ही इस सृष्टि को बनाया है और इसका पालन व संचालन कर रहा है। हमें हमारे कर्मानुसार भिन्न भिन्न योनियों में जन्म भी परमात्मा ही न्यायपूर्वक व पक्षपातरहित होकर देता है। हमें जो सुख मिलते हैं और हमें जीवन में अपनी इच्छाओं की पूर्ति में सफलता मिलती है उसमें भी परम पिता परमात्मा का सहाय व योगदान होता है। अतः हमें ईश्वर के सभी प्रमुख उपकारों को जानकर कृतज्ञ होकर उसकी उपासना करते हुए इसकी स्तुति व प्रार्थना करनी चाहिये और उसके सभी उपकारों को स्मरण कर उसका धन्यवाद करना चाहिये। ऐसा करके हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञ बने रहेंगे और ईश्वर की कृपा हम पर होती रहेगी। हम दुःखों से बचे रहेंगे और ईश्वर की पे्ररणा व सहायता से हम सत्कर्मों को करके यशस्वी बनेंगे। ऐसा करना किसी एक मनुष्य व समुदाय के लिये नहीं अपितु प्रत्येक मनुष्य के लिये आवश्यक है। ऐसा करके ही मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य के अनुसार कार्य करने से सफलताओं को प्राप्त होता है। सन्ध्या में ईश्वर के गुणों व उपकारों का ध्यान किया जाता है। इससे मनुष्य अहंकार शून्य बनता है। उसे यह भी ज्ञात होता है कि उसके जीवनयापन में अनेक प्राणियों के कर्मों व उपकारों का योगदान है। इस कारण वह सबको अपना हितकारी व मित्र समझता है तथा दूसरों के लिये सुख के कार्य करना उसको अपना कर्तव्य प्रतीत होता है। इसके अनुसार जीवन व व्यवहार बनाकर ईश्वर की कृपा बरसने से उसका जीवन सुखी व सफल होता है। अतः सभी मनुष्यों को प्रातः व सायं सन्ध्याओं के समय ईश्वर का सम्यक् रीति से ध्यान व उपासना अवश्य ही करनी चाहिये और ईश्वर का साक्षात्कार कर अपने जीवन को सफल करना चाहिये।
मनुष्य के निमित्त से प्रतिदिन अत्यन्त उपयोगी एवं आवश्यक वायु एवं जल आदि में विकार आता जाता है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह वायु, जल आदि पर्यावरण को न्यूनतम बिगाड़े और जितना बिगड़ता है उतना व उससे कुछ अधिक उन विकारों व प्रदुषणों का सुधार करे। इसका एक ही उपाय है कि वह यज्ञ अग्निहोत्र करके वायु एवं जल आदि की शुद्धि व इनका गुणवर्धन कर सकते हैं। मनुष्य को प्रकृति को हरा भरा रखना चाहिये। इसी कारण से हमारे प्राचीन पूर्वज वनों में रहा कहते थे। झोपड़ी व कुटियायें बना कर रहते थे जिससे पर्यावरण प्रदुषण न्यूनतम होता था। वह गोपालन व कृषि के कार्य किया करते थे। आज के युग की प्रमुख समस्या पर्यावरण प्रदुषण ही है। इसी से समाज में अनेक रोग एवं दुःख देखने को मिलते हैं। आश्चर्य है कि वायु एवं जल को शुद्ध करने में सबसे अधिक कारगर व समर्थ देवयज्ञ अग्निहोत्र को करना लोगों ने भुला दिया व छोड़ दिया है। सभी मनुष्यों को अपना कर्तव्य व धर्म मानकर वेद और ऋषियों की आज्ञा देवयज्ञ अग्निहोत्र को प्रतिदिन प्रातः सूर्योदय व उसके बाद तथा सायं सूर्यास्त से पूर्व यज्ञ करना चाहिये। यह देवयज्ञ छोटा सा अग्निहोत्र वा यज्ञ होता है जिसे हम 15 मिनट में ही पूरा कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने वर्तमान समय में समय की उपलब्धता का भी ध्यान रखा था तथा यज्ञ को संक्षिप्त कर मात्र प्रातः व सायं 16 प्रमुख आहुतियों में समाविष्ट कर दिया था। आर्यसमाज में बहुत से लोग इस वेद और ऋषि आज्ञाओं का पालन करते हैं। समाज मन्दिरों में भी पुरोहितगण प्रातः व सायं यज्ञ करते हैं। इसका यज्ञ के परिमाण के अनुसार वायुमण्डल पर प्रभाव पड़ता है और वायु व जल की शुद्धि होती है। वेदमन्त्रों के उच्चारण व सत्कर्मों सहित वेदमन्त्र में निहित अर्थ के ज्ञान से आत्मा की शुद्धि व उन्नति भी होती है।
अतः सभी मनुष्यों को इस आवश्यक कर्तव्य को अवश्य ही करना चाहिये। इसे करने से उन्हें जन्म व परजन्मों में लाभ होगा और वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर रहकर उन्हें प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं। सभी मनुष्यों को परमात्मा के मनुष्यों पर अनन्त उपकारों को जानने तथा अविद्या से बचने के लिये भी सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करते हुए इन पंचमहायज्ञों के दो प्रमुख कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
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