“कर्तव्य पालन व परोपकार सहित कामनाओं की पूर्ति यज्ञ से होती है”



मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसके द्वारा हर क्षण वायु को प्रदूषित किया जाता है। वायु ही नहीं अपितु मनुष्य जिस स्थान पर रहता वहां भी अस्वच्छता व अपवित्रता उत्पन्न होती रहती है जिसे अनेक प्रकार से स्वच्छ व पवित्र किया जाता है। वायु मुख्यतः मनुष्य के श्वास लेने से अपवित्र होती है। मनुष्य जो भोजन करता है उसके लिये अग्नि का प्रयोग करना पड़ता है। भोजन पकाने में भी वायु में विद्यमान आक्सीजन प्रयोग में आती है और इससे कार्बन डाई आक्साइड गैस बन जाती है जिससे वायुमण्डल में आक्सीजन में कमी तथा कार्बन डाईआक्साइड में वृद्धि होती है। मनुष्य जिस घर में रहता है वह घर धुएं से गन्दा होता है। धूल के कण भी घर को गन्दा करते हैं। वह अपने वस्त्रों को पहनता है जो स्वतः ही गन्दे हो जाते हैं। इन्हें भी स्वच्छ करने के लिये इन्हें धोना पड़ता है जिससे जल प्रदुषित होता है। मनुष्य रहने के लिये निवास बनाता है जिससे भूमि के पदार्थों का उपयोग करने के लिए खनन किया जाता है। जहां मनुष्य घर बनाता है वहां का स्थान कृषि करने के योग्य नहीं रहता। इसी प्रकार मनुष्य के उपयोग के लिये सड़के व उद्योग आदि बनते हैं जिनका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मनुष्य के जीवनयापन से वायु, जल तथा भूमि आदि में जो प्रदूषण व असन्तुलन होता है, उसका निवारण करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य होता है। इसके लिये ऐसा क्या किया जाये जिससे मनुष्य किये गये प्रदूषण के अपराध से मुक्त हो जाये? इस पर हमें वेदों में समाधान मिलता है जहां बताया गया है कि प्रत्येक गृहस्थी मनुष्य को प्रतिदिन प्रातः व सायं देवयज्ञ अग्निहोत्र करना चाहिये। 

देवयज्ञ अग्निहोत्र में एक हवनकुण्ड में आम व चन्दनादि काष्ठों की समिधाओं को जलाकर पुष्टि कारक घृत, मिष्ट पदार्थ शक्कर, ओषधि सोमलता, गिलोय आदि सहित पुष्टिकारक सूखे फल बादाम, काजू, छुआरे, किश्मिश आदि की आहुतियां दी जाती हैं। अग्नि में इनकी आहुतियां देने से यह पदार्थ जलकर सूक्ष्म हो जाते हैं और समस्त वायुमण्डल व आकाश में फैल जाते हैं। हवन की आहुति के जलने से वह सुगन्ध का प्रसार तथा दुर्गन्ध का नाश करती है। इससे वायु की शुद्धि सहित वर्षा के जल के अणु व परमाणुओं की शुद्धि भी होती है। यदि सब यज्ञ करें और ईश्वर से प्रार्थना करें तो इच्छानुसार उचित मात्रा में वर्षा होती है जिसका संकेत वेद के मन्त्रों में मिलता है। यज्ञ करने से वायु, जल आदि की शुद्धि तो होती ही है उसे अपने पर्यावरण को शुद्ध रखने वा उसे दूषित न करने की प्रेरणा भी मिलती है। यज्ञ करने वाला मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को कम रखता है जिससे प्रकृति व सृष्टि का सन्तुलन बना रहता है। प्राचीन काल में हम ऋषि मुनियों की जीवन चर्या को देखते हैं तो हम पाते हैं कि वह अत्यधिक पवित्र विचारों के होते थे तथा उनकी आवश्यकतायें बहुत कम हुआ करती थी। यही कारण है कि सृष्टिकाल 1 अरब 96 करोड़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी सृष्टि में सभी पदार्थ व तत्व प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक अविकृत रूप में पाये जाते हैं जिससे वर्तमान काल के संसार के लोग लाभान्वित हो रहे हैं। आधुनिक काल में भी मनुष्यों को प्राचीन ऋषि मुनियों व आर्यों की जीवन पद्धति वा शैली का अनुकरण करना चाहिये जो पंचमहायज्ञों पर आधारित थी। इस जीवन पद्धति में प्रकृति को न्यूनतम उपयोग वा विकृत किया जाता है। आज जितना विकृत किया जा रहा उतना नहीं किया जाता। 

प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह प्रतिदिन प्रातः व सायं पंचमहायज्ञों को करें जिसका देवयज्ञ अग्निहोत्र करना एक अनिवार्य अंग है। पंचमहायज्ञ मनुष्य के पांच कर्तव्यों को कहते हैं। यह कर्तव्य हैं ईश्वर का सम्यक् ध्यान सन्ध्या, दूसरा देवयज्ञ अग्निहोत्र, तीसरा पितृयज्ञ जिसमें माता व पिता की श्रद्धापूर्वक सेवा की जाती है, चैथा यज्ञ है अतिथि यज्ञ। इस यज्ञ में विद्वान अतिथियों व आचार्यों की सत्यनिष्ठा से सेवा व सहायता की जाती है। पांचवा यज्ञ बलिवैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। इस यज्ञ में मनुष्य को पालतू पशु व पक्षियों के जीवनयापन में भावनात्मक एवं भोजन का सहयोग करके सहायक हुआ जाता है। इसमें हम पशुओं व पक्षियों को चारा व रोटी आदि भोजन कराते हैं तथा पानी पिलाते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि हम भी पिछले जन्मों में पशु व पक्षी बने हैं। भविष्य में भी हम इन योनियों में जन्म ले सकते हैं। ऐसी स्थिति में इस परम्परा के निर्वहन से हमारा जीवन जीना सुलभ होता है। आज हम पशु व पक्षियों के जीवन जीने में सहायक बनते हैं, भविष्य में यह पशु व पक्षी भी मनुष्य जन्म लेंगे तो इस परम्परा का निर्वहन करने से पशु व पक्षी योनि की जीवात्माओं को सुख व भोजन आदि में सहायता प्राप्त होगी। 

हमारा यह संसार इसमें विद्यमान सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा सर्वशक्तिमान सर्वेश्वर सत्ता परमात्मा ने जीवात्माओं के सुख व कल्याण अथवा भोग एवं अपवर्ग-मोक्ष के लिये बनाया है। हम जीवात्मा हैं। हमें आज जो सुख मिल रहा है, अतीत में मिला है व भविष्य में भी मिलेगा उस सबका आधार व मुख्य कारण परमात्मा का बनाया जगत व उसका कर्मफल सिद्धान्त है। अतः हमें उस ईश्वर को जानना और उसका ध्यान व चिन्तन करते हुए उसके उपकारों के लिये धन्यवाद करना होता है। इसे ही ब्रह्मयज्ञ कहते हैं। इससे कामनाओं की सिद्धि सहित आत्मा की उन्नति एवं सुखों का लाभ होता है। अतः सभी मनुष्यों को ब्रह्मयज्ञ वा सन्ध्या अवश्य ही करनी चाहिये। सन्ध्या सही विधि से करनी चाहिये जो हमें वेदों व वेद के ऋषियों की शिक्षा व दिशानिर्देशों से ज्ञात होती है। ऋषि दयानन्द ने सन्ध्या की विधि का पुस्तक लिख कर इस कार्य को सरल कर दिया है। सन्ध्या में मन्त्रों का पाठ तथा उनके अर्थों का विचार करने सहित वेदों के स्वाध्याय का भी प्रमुख स्थान है। सन्ध्या करने से मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि सहित आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि वह पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है। यह छोटी बात नहीं है? ऋषि दयानन्द एक महत्वपूर्ण बात यह कहते हैं कि जो मनुष्य ईश्वर के उपकारों को स्मरण नहीं करता अपितु उन्हें भूला देता है और सन्ध्या के द्वारा उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख होता है। इसका कारण यह है कि परमात्मा ने हमारे लिये यह सृष्टि और इसके समस्त पदार्थ बनाये हैं और हमारे शरीर भी परमात्मा ने हमारे कर्मानुसार बनाये हैं। हमें इस शरीर व सृष्टि के पदार्थों का उपभोग करने के लिये परमात्मा को कोई मूल्य व शुल्क नहीं देना पड़ता है। अतः ईश्वर की उपासना करते हुए उसका धन्यवाद करना तो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य वा धर्म होता ही है अन्यथा निःसन्देह वह कृतघ्न व महामूर्ख सिद्ध होता है। 

पंचमहायज्ञ में दूसरे स्थान पर देवयज्ञ अग्निहोत्र आता है। वेदों में अग्निहोत्र करने की प्रेरणा, आज्ञा व शिक्षा दी गई है। ईश्वर की आज्ञा का पालन करना सभी मनुष्यों का परमधर्म है। यज्ञ करने से मनुष्य के कर्तव्यों का पालन होता है। इससे वायु, जल, भूमि आदि पर्यावरण शुद्ध बनता है। संसार से रोग दूर होते हैं। यज्ञकर्त्ता को सुख व शान्ति की प्राप्ति होती है। उसका यश बढ़ता है। उसका यह जन्म सुखों से युक्त तथा परजन्म भी सुधरता व बनता है। यज्ञ करने से अमृत, अक्षय सुख वा मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। यह यज्ञ कर्म अमृत की प्राप्ति में सहायक होता है। यज्ञ को न करने से हम सुखों व अमृत से दूर होते हैं। यज्ञ करने से वेद मन्त्रों का पाठ होता है जिससे वेदों का स्वाध्याय करने की प्रेरणा होकर वेदों की रक्षा होती है। यज्ञ करने वाला मनुष्य निर्धन नहीं होता। यज्ञ करने वाले मनुष्य की भौतिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार की उन्नति होती है। हमारे यज्ञ करने से हमारे पड़ोसियों सहित विश्व का प्रत्येक व्यक्ति स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभान्वित होता है। हानि किसी की भी नहीं होती। 

यज्ञ एक परोपकार का प्रमुख कार्य व आधार है। परोपकार करना भी प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य व धर्म होता है। हम अपने जीवन में अनेक मनुष्यों, पूर्व दिवंगत व वर्तमान, के कर्मों से लाभान्वित होते हैं। इस कारण से हम उनके ऋणी होते हैं। कोई हमारा घर बनाता है, कोई सड़क, किसान अन्न उत्पन्न करता है, उद्योग हमारी आवश्यकता की अनेक वस्तुयें बनाते हैं, हम अपने वस्त्र स्वयं नहीं बनाते अपितु बाजार से लेकर प्रयोग करते हैं जिसमें अनेक मनुष्यों का पुरुषार्थ लगा होता है, अतः हमारा भी कर्तव्य है कि हम भी दूसरों का उपकार यज्ञ व अन्य दूसरों के हितकारी कर्मों को करके करें। अतः यज्ञ से परोपकार भी होता है। यज्ञ के प्रत्येक मन्त्र में हम ईश्वर से कुछ न कुछ कामना करते हैं। ईश्वर सब कामनाओं का पूर्ण करने वाला होता है। यदि हम शुद्ध विचारों वाले होकर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं तथा उसके अनुरूप पुरुषार्थ करते हैं तो हमारी वह कामना सफल होती है। अतः सभी कामनाओं की पूर्ति व सिद्धि में भी यज्ञ का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः सभी गृहस्थ मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह देवयज्ञ को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लें जिससे देश व समाज का वातावरण पवित्र व शुद्ध बने तथा सब मनुष्यों को सुख व अन्य अन्य लाभ निरन्तर होते रहें।

-मनमोहन कुमार आर्य

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