“ईश्वर अनादि, जगत का कर्ता एवं जड़-चेतन जगत का स्वामी है”



ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के सप्तम समुल्लास के आरम्भ में ऋग्वेद के 4 और यजुर्वेद के एक मन्त्र को प्रस्तुत कर उनके अर्थों सहित ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा गुण, कर्म व स्वभाव  का प्रकाश किया है। इन मन्त्रों में तीसरा मन्त्र ऋग्वेद के दशवे मण्डल के सूक्त 48 का प्रथम मन्त्र है। मन्त्र है ‘अहम्भुवं वसुनः पूर्व्यस्पतिरहं धनानि सं जयामि शश्वतः। मां हवन्ते पितरं न जन्तवोऽहं दाशुषे विभजामि भोजनम्।।‘ इस मन्त्र का अर्थ करते हुए ऋषि ने बताया है ‘ईश्वर सब को उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! मैं ईश्वर सब के पूर्व विद्यमान सब जगत् का पति हूं। मैं सनातन जगत्कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता हूं। मुझ ही को सब जीव जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं वैसे पुकारें। मैं सब को सुख देनेहारे जगत् के लिये नाना प्रकार के भोजनों का विभाग पालन के लिये करता हूं।’ इस मन्त्र के अर्थ में ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के स्वरूप तथा उसके कुछ गुणों का प्रकाश किया है। यह स्वरूप वा गुण ईश्वर के सत्य गुण हैं। यदि ईश्वर में यह गुण व कर्म न होते तो इस जगत् की उत्पत्ति वा पालन होना सम्भव नहीं था। ईश्वर ने स्वयं बताया है कि वह इस जगत् में सबसे पूर्व से वर्तमान है। इसका अभिप्राय यह है कि ईश्वर तीन अनादि पदार्थों ईश्वर, जीव व प्रकृति के समान ही अनादि व नित्य पदार्थ है। ऐसा नहीं है कि ईश्वर से पहले कुछ रहा हो और ईश्वर उसके बाद उत्पन्न हुआ हो वा अस्तित्व में आया है। विचार करने पर यही ज्ञात होता है कि ईश्वर, जीव व प्रकृति इस संसार में तीन अनादि व नित्य सत्तायें व पदार्थ हैं। तीनों अविनाशी व अनन्त काल तक रहने वाले हैं। इनका कभी अभाव नहीं होगा। यह सृष्टि बनने से पहले भी थे और सृष्टि की प्रलय के बाद भी बने रहेंगे। प्रलय होने के बाद सृष्टि का पुनः सृजन ईश्वर करता है। इस सृष्टि का पालन व प्रलय एकमात्र ईश्वर के द्वारा ही होती है। अनादि काल से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय का क्रम चल रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। अनन्त काल में भी कभी ऐसा कोई समय नहीं आयेगा कि जब ईश्वर, जीव व सृष्टि में से किसी एक पदार्थ का अस्तित्व अभाव को प्राप्त हो। 

मन्त्र में ईश्वर ने स्वयं को जगत का पति वा स्वामी बताया है। जिस चेतन सत्ता से कोई भौतिक पदार्थ अस्तित्व में आता है वह उसका पति वा स्वामी होता है। चेतन जीव भी एक अल्पज्ञ, चेतन व अल्पशक्ति से युक्त एकदेशी व ससीम सत्ता है। जड़ जगत को उत्पन्न करना व इसकी रचना कर इसका संचालन करना ईश्वर का ही कार्य है। ईश्वर के समान दूसरा व तीसरा कोई ईश्वर नहीं है, वह केवल एक व अपने जैसा अकेला परमात्मा है। अतः एक ईश्वर स्वयंभू सत्ता है। प्रकृति जड़ होने से स्वयं में स्वतन्त्र होकर भी कार्य सृष्टि में परिणत होने के लिए ईश्वर अपेक्षा रखती है। बिना ईश्वर द्वारा सृष्टि को उत्पन्न किए प्रकृति का अपना कोई मूल्य नहीं होता। कार्य सृष्टि वा जगत बनने पर प्रकृति जीवों के सुख व अपवर्ग मोक्ष का साधन बन जाती है और इसका गुणवर्धन परमात्मा द्वारा होता है। परमात्मा सब जीवों व चेतन प्राणियों का भी पिता व स्वामी है। सभी जीवों को नाना योनियों में जन्म परमात्मा के द्वारा ही मिलता है। परमात्मा ही जीवों को माता के गर्भ में प्रविष्ट कराता व वहां पर उनके कार्य करने योग्य शरीरों का निर्माण करता है। जीवों का जन्म व योनि का निर्धारण जीवों के ही पूर्वजन्म के कर्मों वा प्रारब्ध के आधार पर होता है। जीव जन्म से लेकर मरण पर्यन्त संसार में रहता है। स्वस्थ शरीर से संसार में उपलब्ध सुख की सामग्री का भोग करता है। उसकी प्राणों की क्रिया चलती रहती है। यह सब परमात्मा की व्यवस्था से ही सम्भव होता है। अतः सब जीवों व जन्मधारी प्राणियों का पिता व स्वामी जिसे पति भी कहते हैं, एकमात्र परमात्मा ही है। इसी बात को परमात्मा ने वेद के मन्त्र द्वारा बताया है। परमात्मा हम सब जीवों व प्राणियों सहित इस सृष्टि का स्वामी है, इसका ज्ञान हमें वेदों ने ही सृष्टि के आरम्भ में कराया था। यदि ईश्वर ऐसा न करता तो हमारे आदि काल के पूर्वज वेदों में दिए गये ज्ञान को न जानने से अज्ञानी रहते और उनका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत नहीं हो सकता था। अतः ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान देकर मानव जाति व जीवों का महानतम उपकार किया है। 

वेदमन्त्र में ईश्वर ने यह भी बताया है कि ईश्वर सनातन जगत्कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता है। ईश्वर जगत का सनातन कारण है इसका अभिप्राय है कि ईश्वर इस जगत का अनादि काल से निमित्त कारण है। ईश्वर अपनी सर्वज्ञता से अपने पूर्ण ज्ञान तथा सर्वशक्तियों से इस जगत के उपादान कारण प्रकृति से जगत् को बनाते हैं। संाख्य दर्शन में सृष्टि की रचना का वर्णन हुआ है। परमात्मा अनादि कारण प्रकृति से इस सृष्टि को बनाते हैं। प्रकृति, सत्व=शुद्ध, रजः=मध्य, तमः=जाडय अर्थात् जड़ता तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है उस का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति से महत्तत्व बुद्धि, उस से अहंकार, उस से पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर है। इनमें से प्रकृति अविकारिणी और महत्तत्व अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रिया, मन तथा स्थूल भूतों का कारण है। पुरुष अर्थात् आत्मा व ईश्वर न किसी की प्रकृति, उपादान कारण और न किसी का कार्य है। इस प्रकार ईश्वर सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति से इस जगत जिसमें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र आदि विद्यमान हैं, अपनी सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता तथा अपने सर्वशक्तिमान स्वरूप से सृष्टि का निर्माण करते हैं। अतः ईश्वर ही इस जगत के एकमात्र निमित्त कारण, जगत को बनाने वाले तथा इसके स्वामी सिद्ध होते हैं। ईश्वर संसार के सभी धनों का विजय करनेवाला और दाता भी है। वेद की यह बात भी सर्वथा सत्य है। सृष्टि के जिन पदार्थों को हम धन मानते हैं वह सब परमात्मा के बनाये पदार्थ हैं। परमात्मा ही मनुष्यों व सब प्राणियों को शरीर व इन्द्रियां आदि प्रदान कर उन धनों व पदार्थों को प्राप्त करने योग्य बनाते है। अतः जीव जिन पदार्थों को प्राप्त करने में सफल व विजयी होते हैं वह सब ईश्वर प्रदत्त शक्तियों, ज्ञान व प्रेरणा से ही सम्भव होते हंै। जीव का धनों को प्राप्त करने में अपना निजी पुरुषार्थ अवश्य होता है। इस पुरुषार्थ के कारण जीवों को धन प्राप्त करने का श्रेय प्राप्त होता है। यह भी हमें ज्ञात होना चाहिये कि हम जिन धनों की प्राप्ति में सफल व विजयी होते हैं उन्हें प्राप्त करने की शक्ति व सामर्थ्य हमें परमात्मा से ही प्राप्त हुई है। अतः परमात्मा ही सृष्टि के सब धनों का विजय करनेवाला तथा मनुष्य आदि प्राणियों को धनों व पदार्थों का दाता है। 

ऋग्वेद के इस मन्त्र में परमात्मा ने बड़े सरल शब्दों में मनुष्यों के लिए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने का उपदेश व निर्देश भी किया है। ईश्वर ने कहा है कि मुझ ईश्वर ही को सब जीव जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं वैसे पुकारें। सन्तान माता पिता को नमस्ते करते व चरण स्पर्श कर आदर व सम्मान देते हैं। माता पिता की सर्वत्र प्रशंसा करते हैं। माता पिता की आज्ञाओं का पालन करते हैं। माता पिता से ज्ञान प्राप्त करते व उनसे अभिलषित पदार्थ देने के लिए कहते हैं व माता पिता वह सब उन्हें देते हैं जो सन्तानों के लिए आवश्यक होता है। सन्तान का जीवन माता पिता के उपकारों की ही देन होता है। जैसा सन्तान माता पिता के प्रति व्यवहार करते व उन्हें अपनी आवश्यकताओं के लिए पुकारते हैं इसी प्रकार से हमें भी परमात्मा को आदर व सम्मान के साथ उसके उपकारों के लिए कृतज्ञता की भावना करके पुकारना चाहिये। उसकी प्रशंसा करनी चाहिये और उससे अपनी आवश्यकता के पदार्थों सहित उपासना तथा ज्ञान प्राप्ति का वरदान मांगना चाहिये। ऐसा करने से ही हमारा मनुष्य जीवन सफल होता है। 

मन्त्र में अन्तिम बात कही गई है कि ईश्वर सब प्राणियों वा मनुष्यों को सुख देनेहारे जगत् के लिये नाना प्रकार के भोजनों का विभग पालन के लिये करता है। इसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि संसार में मनुष्य आदि प्राणियों को जितने व जो-जो भी भोजन के पदार्थ उपलब्ध हैं वह सब परमात्मा ने ही जीवों व मनुष्य आदि प्राणियों के लिए बनाये है। यदि वह न बनाता तो हम भोजन प्राप्त करने में असमर्थ रहते। हमें यह जानना चाहिये कि हम जो भोजन करते हैं तथा जिस भोजन से हमें ऊर्जा व शक्ति प्राप्त होती है, भोजन व स्वस्थ शरीर से हम सुखों का अनुभव करते हैं वह सब हमें परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त हो रहे हैं। सभी भोजनों को बनाने व प्रदान कराने वाला परमात्मा ही है। यह सब बातें जानकर मनुष्य व जीवात्मा का स्वयं को परमात्मा को समर्पित करना ही कर्तव्य विदित होता है। परमात्मा के जीवों पर अनन्त उपकार है। परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में हमें वेदों का ज्ञान देकर हम पर महान उपकार किया है। हम उसके ऋणी है। उसका ऋण हम कभी नहीं चुका सकते। हमें ईश्वर के उपकारों के लिए उसके वेदज्ञान को पढ़ना व पढ़ाना है। वेदज्ञान को विद्वानों व ऋषियों के ग्रन्थों को पढ़कर सुनना व सुनाना है जिससे हमारा व अन्यों का भी कल्याण हो। हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञ बने रहें और दूसरों को भी उनके कर्तव्य पालन कराने में सहायक हों। ईश्वर हमें शक्ति दे कि हम वेदों का स्वाध्याय करते हुए वेदमार्ग पर चलकर अपने जीवन को सफल करें। ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु तथा गोकरुणानिधि तथा ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य आदि  ग्रन्थों के लेखन एवं प्रकाशन के लिए कोटिशः धन्यवाद है। यदि वह यह ग्रन्थ न लिखते, वेद प्रचार न करते, आर्यसमाज की स्थापना न करते तथा अन्धविश्वासों तथा मिथ्या परम्पराओं का खण्डन न करते तो हमारा जीवन अन्धकार व दुःखों से युक्त होता। देश आजाद न होता और ज्ञान विज्ञान की उन्नति न होती। ईश्वर व ऋषि दयानन्द के हम आभारी व ऋणी हैं और उनका कृतज्ञतापूर्वक धन्यवाद करने सहित उनको सादर नमन करते हैं। 

-मनमोहन कुमार आर्य

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