हम मनुष्य के रूप में जन्मे व जीवन जी रहे हैं परन्तु हमें यह पता नही होता कि हमारा जन्म क्यों हुआ तथा हमें करना क्या है? संसार के अधिकांश व प्रायः सभी मनुष्यों की यही स्थिति है। इस प्रश्न का उत्तर केवल वेद व वैदिक साहित्य से ही प्राप्त होता है जो ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने धर्म साहित्य का अनुसंधान करके हमें बताया है। ऋषि दयानन्द सत्य धर्म की खोज करते हुए वेदों के मर्म तक पहुंचे थे। उन्हें विदित हुआ था कि वेद ही संसार में ज्ञान के आदि स्रोत हैं। यह वेद चार हैं जिन्हें हम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के नाम से जानते हैं। इन वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आदि काल में हुई थी। प्राचीन वैदिक साहित्य के शब्दकोश के अनुसार वेद ज्ञान को कहते हैं। वेदों का यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में इस जगत के उत्पत्ति कर्ता सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने अमैथुनी सृष्टि करके उसमें उत्पन्न चार ऋषि कोटि की पवित्र आत्माओं, जिन्हें अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा के नाम से जाना जाता है, उनकी आत्माओं में जीवस्थ स्वरूप से आत्मा में प्रेरणा करके प्रदान किया था।
ऋषियों एवं वैदिक धर्मियों ने उस वेद ज्ञान को आज 1 अरब 96 करोड़ से अधिक अवधि व्यतीत हो जाने पर भी पूर्णतः सुरक्षित रखा है तथा उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन व मिलावट नहीं होने दी है। परमात्मा से प्राप्त इस वेद ज्ञान को कालान्तर में संहिता व पुस्तक का रूप दिया गया था। आज यह हमें पुस्तक रूप में उपलब्ध होता है। चार वेदों में कुल 20,349 मन्त्र हैं जो सभी पूर्णतः शुद्ध अवस्था में हमें प्राप्त हैं। इतना ही नहीं इन सब मन्त्रों के संस्कृत व हिन्दी अर्थों सहित इनके अंग्रेजी व अन्य कुछ भाषाओं में अनुवाद भी उपलब्ध होते हैं। वेदों को ज्ञान का भण्डार बताया जाता है जो कि सत्य है। वेदाध्ययन कर वैदिक ऋषियों ने वेदों को सब सत्य विद्याओं का भण्डार व पुस्तक घोषित किया है। ऋषि दयानन्द ने इस बात को सिद्ध करने के लिये अपनी पुस्तक ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ तथा वेदभाष्य करके इस मान्यता को पुष्ट किया है। वेद में मनुष्यों के जानने योग्य सभी प्रकार का शंकाओं से रहित तथा सृष्टि क्रम के अनुरूप व ज्ञान-विज्ञान से युक्त ज्ञान उपलब्ध होता है। ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्होंने अपने अध्ययन व प्राचीन ऋषि परम्पराओं के अनुसार वेदाध्ययन व वेदाचरण को सभी मनुष्यों का परम धर्म अर्थात् कर्तव्य पालन का आचार शास्त्र घोषित किया है। वेद मनुष्य को सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग करने सहित सत्य को जीवन में धारण करने तथा सत्य का ही आचरण करने का उपदेश देते हैं। वेद संसार के सभी ग्रन्थों में सबसे अधिक प्राचीन तथा ज्ञान व विज्ञान पुष्ट मान्यताओं से युक्त ज्ञान सिद्ध होता है जिसका अध्ययन किये बिना मुनष्य का जीवन अपने उद्देश्य में सफल नहीं होता और न ही उसे अपना लक्ष्य आनन्द से युक्त मोक्ष जिसे अमृत कहा जाता है, प्राप्त होता है।
वेदाध्ययन से हमें ज्ञात होता है कि संसार में ईश्वर, जीव तथा प्रकृति अनादि व नित्य हंै। इनकी कभी उत्पत्ति नहीं हुई और न ही इनका कभी विनाश व अभाव होता है व होगा। यह तीनों पदार्थ अनादि काल से, जिसकी मनुष्य गणना नहीं कर सकते, विद्यमान हैं। ईश्वर सत्य-चित्त-आनन्द स्वरूप वाली सत्ता है। यह निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यपक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र तथा सृष्टिकर्ता है। यह ईश्वरीय सत्ता सृष्टि को उत्पन्न करने व इसकी रचना करने के साथ इसमें विद्यमान अनन्त संख्या वाले जीवों को उनके पूर्वजन्मों में किये हुए कर्मों का सुख व दुःखरूपी फल देने के लिये नाना योनियों में जन्म देती है। संसार में अनेक व अगणित योनियां हैं जिनमें से एक मनुष्य योनि भी होती है। मनुष्य योनि उभय योनि होती है तथा इतर सभी योनियां सुख व दुःख का भोग करने वाली योनियां हो हैं।
मनुष्येतर पशु-पक्षी आदि भोग योनियों में कोई जीव वा प्राणी अपने विवेक व ज्ञानपूर्वक सद्कर्म व पुण्यकर्म करके कर्मों का संचय नहीं करता। उसे जो भी सुख व दुःख प्राप्त होते हैं वह सब उसके पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर प्राप्त होते हैं। मनुष्य योनि उभय योनि होती है जिसमें मनुष्य अपनी बुद्धि को ज्ञान से युक्त कर तथा उससे विचार कर सत्य व असत्य का निश्चय कर कर्मों को करता है। कुछ सुख व दुःख उसे उसके पूर्वजन्मों के आधार पर प्राप्त होते हैं और कुछ इस जन्म के क्रियमाण कर्मों के आधार पर मिलते हैं। कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं जो संचित कर्म बनते हैं जिनका फल उसे मृत्यु के बाद परजन्म व भावी जन्मों में प्राप्त होता है। मनुष्य के सुख व दुःख का आधार उसके पाप व पुण्य रूपी कर्म होते हैं। पाप कर्मों का फल दुःख तथा पुण्य व शुभ कर्मों का फल दुःख होता है। इस कारण से मनुष्यों को बहुत ही विचार कर केवल शुभ व पुण्य कर्मों को ही करना चाहिये जिससे उसे जीवन में दुःख प्राप्त न हों। वैदिक धर्मी अपना जीवन इस सिद्धान्त का पालन करते हुए व्यतीत करने की चेष्टा करते हैं। ऐसा ही हमारे वैदिक धर्मी पूर्वज व ऋषि आदि करते आये हैं। आज भी ईश्वर की यह कर्मफल व्यवस्था संचालित है व अपने आदर्श रूप में विद्यमान है। हम व संसार का कोई भी प्राणी अपने अपने जीवनों में दुःख नहीं चाहता। अतः सभी को जीवन में कोई भी अशुभ, असत्य तथा पाप संबंधी कर्म नहीं करना चाहिये और सद्कर्म, पुण्य व शुभ कर्मों को करके सुखों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने चाहियें। ऐसा करने से हमारा मनुष्य जन्म लेना सार्थक होता है।
ईश्वर से इतर जीवात्मा एक अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, सत्य व चित्त स्वरूप वाली सत्ता है। जीवात्मा ज्ञान व कर्म करने की सामर्थ्य से युक्त होती है। जन्म होने पर ही आत्मा की यह क्षमता व सामर्थ्य इसमें आती है। जीवात्मा अनादि व नित्य, अमर व अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा है। इसके जन्म का आधार कर्म हुआ करते हैं। संसार में जीवात्माओं की संख्या अनन्त है। इन आत्माओं की गणना नहीं की जा सकती परन्तु सर्वज्ञ ईश्वर के ज्ञान में यह सीमित हैं। यह जीवात्मा हम व हमारे समान सभी मनुष्य व इतर प्राणी में हैं। मनुष्य जन्म व इतर जन्मों में सब प्राणियों को अपने पूर्वजन्मों के किये हुए कर्मों के फलों का भोग करना होता है। मनुष्य योनि में मनुष्य कर्म भोग भी करता है और नये कर्मों को भी करता है। वेद मनुष्यों को सद्कर्म वा पुण्य कर्मों को करने की प्रेरणा करते हैं। वेदों में मनुष्यों के लिए पंचमहायज्ञों व कर्तव्यों का पालन करने का विधान है जिन्हें ईश्वर का ध्यान वा संन्ध्या, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेवयज्ञ कहते हैं। असत्य व अशुभ कर्मों के त्याग तथा सत्य व वेदविहित कर्मों का सेवन करने से ही मनुष्य को सुख-दुःखी रूपी मनुष्य आदि जन्मों से अवकाश मिलता है। इसे ही मोक्ष कहा जाता है। यह मोक्ष परमात्मा की कृपा व जीवात्मा के कर्मों के आधार पर मिलता है। मोक्ष में जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहता है। उसे परमात्मा से अनेक प्रकार की शक्तियां प्राप्त होती हैं। वह पूरे ब्रह्माण्ड में कही भी आ जा सकता है। ईश्वर के सान्निध्य से मुक्त जीवात्मा को अखण्ड सुख व आनन्द की प्राप्ति होती है। इस अमृत व मोक्ष को प्राप्त करने के लिये ही हमारे सभी ऋषि मुनि व विद्वान वेदानुसार ज्ञान व कर्म की साधनायें किया करते थे और बहुत ही सामान्य व साधारण कष्टदायक जीवन व्यतीत करते थे।
सभी ऋषि मुनि व मुमुक्षुजन परोपकार तथा सत्कर्मों को ही किया करते थे। आज भी बहुत से वैदिकधर्म के अनुयायी यही कर्म व कार्य करते हैं जिनसे उनकी श्रेष्ठ गति व आत्मा की उन्नति होती है। प्रकृति जड़ पदार्थ है जो हमारी इस सृष्टि का उपादान कारण है। इसी से परमात्मा ने इस संसार की रचना की है। हमें इन तथ्यों को जानना चाहिये और अपने जीवन को दुःखों की निवृति सहित अमृत व आनन्द की प्राप्ति के लिये वैदिक धर्म के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के साधनों व आचरणों को करना चाहिये। मनुष्य के लिये प्राप्तव्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष ही हैं। यदि हम इस जन्म का सदुपयोग करते हुए मोक्ष प्राप्ति के लिए कार्य नहीं करेंगे तो हमारा मनुष्य जन्म लेना व्यर्थ सिद्ध होगा और इसके परिणाम से हमें परजन्म में अनेक दुःखों को भोगना पड़ सकता है।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121
Comments
Post a Comment