हम अपने जीवन के प्रथम दिन से ही इस सृष्टि को अपनी आंखों से देख रहे हैं। इस सृष्टि का अस्तित्व सत्य है। यह सृष्टि विज्ञान के नियमों के अनुसार चल रही है। इस सृष्टि तथा इसके नियमों का नियामक कौन है? इस प्रश्न पर विचार करने पर इसका एक ही समाधान मिलता है कि एक अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अविनाशी परमात्मा ही इस सृष्टि का रचयिता, उत्पत्तिकर्ता तथा पालक है। कोई भी रचना उसके रचयिता के द्वारा ही अस्तित्व में आती है। सृष्टि भी एक रचना है जिसमें ह्रास का नियम कार्य कर रहा है। हम जन्म लेते हैं और फिर युवा व वृद्धावस्था को प्राप्त होकर मर जाते हैं। इसी प्रकार से सृष्टि के पदार्थों से हम जो भी नये पदार्थ बनाते हैं, वह समय के साथ पुराने होकर जर्जरित होकर समाप्त हो जाते हैं। अतः सृष्टि का क्षरण होता रहता है परन्तु वह इतनी न्यून गति से होता है कि दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी कारण से सृष्टि की आयु पूर्ण होने प्रलय हुआ करती है।
सृष्टि में हमें अपौरुषेय ज्ञान चार वेद भी प्राप्त हैं। यह ज्ञान सृष्टि की आदि में उत्पन्न हुआ था। वेदों में अपने पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थ का उल्लेख नहीं है अपितु संसार के प्राचीन ग्रन्थ ब्राह्मण तथा मनुस्मृति आदि में भी वेदों का उल्लेख पाया जाता है। हजारों व लाखों वर्ष पुराने रामायण एवं महाभारत में भी वेदों का उल्लेख पाया जाता है। इससे सिद्ध होता है कि वेद ही संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। सभी प्रकार के प्रमाणों व साक्षियों से वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से उत्पन्न ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। वेदों का ज्ञान एवं भाषा भी संसार में उपलब्ध ज्ञान एवं भाषा की दृष्टि से सर्वोत्तम, विशेष एवं अतुलनीय है। वेदों में ईश्वर, जीव तथा प्रकृति व उससे निर्मित सृष्टि के जिस स्वरूप का उल्लेख व वर्णन किया गया है, वैसा ही हमें संसार में देखने को मिलता है। ईश्वर व जीवात्मा आदि नित्य पदार्थों का यथार्थ व सत्य ज्ञान भी वेदों से ही होता है। वेदों में निहित ज्ञान व मनुष्यों की सभी शंकाओं को ध्यान में रखकर ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ आर्यभाषा हिन्दी में है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर वेदों के सत्यस्वरूप एवं ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति सहित सृष्टि की उत्पत्ति एवं सृष्टि को बनाने का ईश्वर का प्रयोजन भी जाना जा सकता है। वेदों व इसकी सत्य मान्यताओं सिद्धान्तों का ज्ञान कराने के कारण सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का भी अपना महत्व है। बिना सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़े कोई भी शिक्षित मनुष्य ज्ञानवान, निःशंक व निभ्र्रान्त नहीं हो सकता, ऐसा हम अनुभव करते हैं। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर हमें संसार व इसके अनेक गुप्त व लुप्त रहस्यों का ज्ञान होता है। सत्यार्थप्रकाश के महत्व को आर्य मनीषी पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने यह कह कर व्यक्त किया था कि सत्यार्थप्रकाश को यदि उन्हें अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर भी क्रय करना पड़ता तो वह ऐसा अवश्य करते। इस ग्रन्थ के अध्ययन से ही स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज तथा क्रान्तिकारी लाला लाजपत राय जी आदि महानपुरुषों का जीवन बदला व बना था।
हमारा यह संसार जिसमें हम जन्में हैं तथा हमसे पूर्व हमारे सभी प्राचीन पूर्वज रहते आये हैं, एक ईश्वर से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप तथा सर्वशक्तिमान सत्ता है। वह निराकार, सर्वज्ञ, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य और पवित्र है। वही सृष्टिकर्ता और सृष्टि को उत्पन्न करने वाली सत्ता भी है। जिस प्रकार से सृष्टि में परमात्मा अनादि व नित्य तथा अमर व अविनाशी है उसी प्रकार से संसार में चेतन जीवात्माओं तथा जड़ प्रकृति का भी अस्तित्व है। जीवात्मा सत्य, चित्त, अनादि, नित्य, अमर व अविनाशी, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ, अल्पशक्तियुक्त, जन्म व मरण धारण करने वाली सत्ता है। इसके जन्म का कारण इसके पूर्वजन्मों के कर्म हुआ करते हैं। न केवल मनुष्य अपितु संसार की सभी योनियों में यह अपने कर्मों के अनुसार विचरण करती हैं। इस जीवात्मा का जन्म तभी सम्भव है जब इस सृष्टि का अस्तित्व हो। सृष्टि को उत्पन्न करने की क्षमता किसी एक व सभी जीवों में नहीं है। इसकी उत्पत्ति केवल परमात्मा के द्वारा ही हो सकती है जो निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्र्तयामी, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान होने सहित सृष्टि की रचना के ज्ञान विज्ञान से युक्त है। वह ऐसी ही सृष्टियों की रचना इस कल्प के पूर्व के कल्पों में भी कर चुका है। उसका ज्ञान सदैव पूर्ण हुआ करता है। उसमें कभी न्यूनाधिक्य नहीं होता जैसा कि एकदेशी मनुष्यों के ज्ञान में होता है। सृष्टि बनाने की सामग्री प्रकृति होती है जो तीन गुणों सत्व, रज व तम गुणों वाली है। इस प्रकृति में परमात्मा की प्रेरणा से विकार होकर ही यह सृष्टि जिसमें असंख्य सूर्य, पृथिवी, चन्द्र, तारें व अनेकानेक ग्रह व उपग्रह हैं, बनती है। हमारी समस्त सृष्टि का जो वर्तमान स्वरूप है, जिसमें पंचमहाभूत पृथिवी, अग्नि, जल, वायु व आकाश आदि हैं तथा पृथिवी पर समुद्र, पर्वत, वन, रेगिस्तान, नदियां, झरने व मैदान आदि हैं, वह सब इस प्रकृति के विकारों के द्वारा ही परमात्मा द्वारा ही बनाये गये हैं। इस सृष्टि का निर्माण व उत्पत्ति परमात्मा ने अपनी शाश्वत् प्रजा जीवात्माओं को जो कि संख्या में अनन्त हैं, उनके पूर्व कल्प के कर्मों का भोग कराने व उन्हें ज्ञान, सुख व मोक्ष प्रदान करने के लिये की है। परमात्मा से इतर अन्य कोई ज्ञानवान सत्ता इस संसार वा ब्रह्माण्ड में है ही नहीं जो सृष्टि का निर्माण कर सके। बिना ज्ञान व शक्ति से युक्त कर्ता के बिना किसी भी उपयेागी वस्तु व पदार्थ का निर्माण नहीं हो सकता वा होता है। अतः इस सृष्टि का ईश्वर के समान गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप वाली सत्ता से बनना व उत्पन्न होना सिद्ध होता है।
सृष्टि की उत्पत्ति जीवात्माओं के जन्म व कर्मानुसार सुख व दुःख प्रदान करने सहित जीवों को अक्षय सुख मोक्ष देने के लिये ही ईश्वर ने की है। ईश्वर सत्य, चित्त तथा आनन्द स्वरूप है। ईश्वर का सर्वव्यापक स्वरूप आनन्द से युक्त है। वह सर्वत्र एकरस अर्थात् एक समान आनन्द, ज्ञान व शक्तियों से युक्त है। जीवात्मा भी सुख व आनन्द की कामना वाले होते हैं। मनुष्य योनि में जीवात्माओं के पास बुद्धि होती है जिससे वह ज्ञान को प्राप्त होकर सुख, दुःख को जान व समझ सकने के साथ आनन्द प्राप्ति के विषय में विचार कर उसकी प्राप्ति के उपायों को भी वेद व ऋषियों के ग्रन्थों के आधार पर जान सकते हैं। वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों से विदित होता है कि परमात्मा ने यह सृष्टि जीवों के भोग एवं अपवर्ग के लिये की है। भोग का अर्थ जीवों का अपने अपने कर्मानुसार सुख व दुःखों का भोग करना है तथा अपवर्ग का अर्थ जन्म व मरण से रहित आनन्द वा अमृत से युक्त मोक्ष की प्राप्ति होता है। मोक्ष की अवधि में जीवात्मा का जन्म व मरण नहीं होता। वह अक्षय सुख वा आनन्द को मोक्ष की अवधि तक भोगता है। इस मोक्ष की प्राप्ति के लिये उसे वेदविहित कर्मों को करते हुए अशुभ व पाप कर्मों से दूर रहना पड़ता है। वेदों का ज्ञान प्राप्त करना होता है। वेद ज्ञान के अनुसार ही अपना जीवन बनाना व कर्म करने होते हैं। उसे पंच महायज्ञों का आचरण भी करना होता है। ऐसा करते हुए पूर्वजन्मों के पाप कर्मों का भोग समाप्त कर समाधि द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर मृत्यु के होने पर जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। मोक्ष अवस्था में मुक्त जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहता है। आकाश में अन्य मुक्त जीवों से मिलता व चर्चायें करता हैं। लोक लोकान्तरों में घूमता तथा वहां सृष्टि को देखता है। मोक्ष अवस्था में न तो कर्म होते है और न कर्मों के परिणाम से होने वाले सुख व दुःख ही होते हैं। यह अवस्था सभी जीवों को प्राप्त हो सकती है जो मनुष्य योनि में आने पर वेदानुकूल जीवन व्यतीत करते हैं। अतः सबको वेद, सत्यार्थप्रकाश सहित ऋषियों के ग्रन्थों उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि का अध्ययन कर अपने जीवन को वेदानुकूल बनाना चाहिये और परमार्थ मोक्ष को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये।
यह सत्य सिद्ध है कि परमात्मा ही इस सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, पालक एवं संहारक वा प्रलयकर्ता है। जीवों को मनुष्य जन्म परमात्मा से धर्म पालन, अर्थ संचय, उत्तम कामनाओं को सिद्ध करने तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही मिलता है। सभी को इस तथ्य व रहस्य को जानकर इसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने चाहिये। यही जीवात्मा का परम कर्तव्य व लक्ष्य है।
-मनमोहन कुमार आर्य
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