मेरा मन पंछी बन यूँ फड़फड़ाता रहा
क्यों नहीं जाता गांव,प्रश्न उठाता रहा
सरापा तक डूब गया शहर में आकर
तोड़ रिश्ता गांव से बहाने बनाता रहा
क्या ख़ुश है तू मेरे दिल शहर में आ
क्यों गाँव की जिंदगी ठुकराता रहा
छोड़ गाँव में तू बूढ़े बरगद दादा को
कंटीले कैक्टस से रिश्ते निभाता रहा
थे अम्बिया के बाग़ में डले हुए झूले
मेरी मीठी यादों के झूले झुलाता रहा
मैं भी चाहता था लिखूं दर्द काग़ज़ पे
कम्बख्त मारे दर्द के चिल्ल्लाता रहा
मेरी बूढ़ी माँ को मेरे आने की आस
मन गाँव न जाने के रस्ते सुझाता रहा
अब तमाम शहर वाकिफ़ मुझसे ही
मेरी ग़लती थी ठहरी मैं पछताता रहा
शहरी करण में भूल गया बुढ़े माँ बाप
मुक़द्दर भी तक़दीर पे मुस्कुराता रहा
हमदर्द नमक सा छिड़का इस हाल पे
दुःखी चेहरे पर नये चेहरे लगाता रहा
दुःखी चेहरे पर नये
अशोक सपड़ा हमदर्द
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