“निर्धन, निर्बल और रोगी मनुष्यों की सेवा सद्कर्म होने से कर्तव्य है”
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प्राचीन काल में ही हमारे देश के मनीषियों ने जन्म व कर्म विषय का विषद विवेचन किया था और इसके लिए ईश्वरीय ज्ञान चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद से मार्गदर्शन व सहायता ली थी। विवेचन व विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष सामने आया था कि हमारे जन्म का कारण हमारे पूर्वजन्म के कर्म हुआ करते हैं। संसार में मनुष्य एवं पशु-पक्षी आदि अनेक योनियां हैं। सभी योनियों में सभी प्राणियों के गुण, कर्म एवं स्वभाव सहित उनके विचारों, व्यवहारों एवं परिवेश में भी अन्तर होता है। इसका समाधान पूर्वजन्म के कर्मों व संस्कारों से स्पष्ट होता है। पूर्वजन्म में जिन मनुष्यों ने अधिक शुभ कर्म किये होते हैं उन्हें मनुष्य जन्म मिलता है। शुभ व पुण्य कर्म जितनी अधिक मात्रा में किसी मनुष्य ने किये होते हैं उसे परजन्म में उतनी ही अधिक सुखद स्थिति प्राप्त होती है। इसके अनुसार उसे धार्मिक व शिक्षित माता-पिता व परिवार मिलता है जहां किसी प्रकार का अभाव व दुःख नहीं होता। कर्म जितने अधिक अच्छे होंगे उतना अधिक जीवन सुखद होता है और जितने कम अच्छे होते हैं उतना हमारा वर्तमान जीवन कम सुखद व ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति की दृष्टि से निम्नतर होता है। यही कारण था कि प्राचीन काल से ऋषि व विद्वान लोग वेदाध्ययन कर शुभ कर्मों का आचरण करते थे जिसमें दूसरे मनुष्यों को शिक्षित करना, उनके प्रति अच्छा व्यवहार करना, किसी के साथ क्रोध व अहंकार अथवा अन्याय का आचरण न करना, सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझना, अविद्या का नाश करना और विद्या की वृद्धि करना, निर्धनों, दुर्बलों, अनाश्रितों, अभावग्रस्त व रोगियों की तन, मन व धन से सेवा व सहायता करना धर्म माना जाता था। परोपकार को भी धर्म का एक अंग माना जाता है। जिस मनुष्य के जीवन में दया व करूणा का गुण नहीं है और जो दुर्बल, निर्धन तथा रोगी मनुष्यों की सेवा व सहायता नहीं करता वह धार्मिक मनुष्य नहीं कहलाता। वेद व भारत के सभी प्राचीन धर्मग्रन्थ सभी मनुष्यों एवं पशु आदि प्राणियों के प्रति भी दया व करुणा सहित सेवा का भाव रखने व सबको सुख पहुंचाने की आज्ञा व परामर्श देते हैं। यही धर्म का एक भाग होता है और इसके अनुरूप कर्म ही हमारा प्रारब्ध भी कहलाता है। सेवा रूपी श्रेष्ठ कर्म से मनुष्य की मृत्यु होने के बाद पुनः श्रेष्ठ मनुष्य योनि व अच्छे परिवेश में जन्म मिलता हैं जहां माता-पिता ज्ञानी व धार्मिक होते हुए सुखी व समृद्ध होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को मननशील होकर कर्म का विवेचन करते हुए सद्कर्मों का आचरण कर निर्धन, दुर्बल, रोगी एवं अनाश्रितों मनुष्यों की तन, मन व धन से सेवा करनी चाहिये जिससे परमात्मा उन मनुष्यों पर प्रसन्न होकर अपना ऐश्वर्य एवं शारीरिक व आत्मिक शक्तियां उन्हें प्रदान करें।
किसी दूसरे मनुष्य की जो अपना रक्त-सम्बन्धी नहीं है, उसकी सेवा वही मनुष्य कर सकता है जिसके हृदय में दूसरों के प्रति दया, प्रेम, स्नेह, ममता, करूणा व परमार्थ की भावना हो। इन गुणों की प्राप्ति मनुष्य को ईश्वर की उपासना व वेद आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय व अध्ययन से प्राप्त होती है। महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने से भी मनुष्य की आत्मा पर श्रेष्ठ संस्कार उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार वृद्धों की संगति व सेवा सहित सच्चे महापुरुषों के सत्संग में जाने से भी मनुष्य को सेवा आदि गुण संस्कार रूप में प्राप्त होते हैं। जो व्यक्ति अपने व परायों सभी की निष्पक्ष भाव से सेवा व सहायता करते हैं, समाज में उन व्यक्तियों को सभी महत्व देते हैं और उनका आदर करते हैं। सरकार की ओर से भी वह पुरस्कृत होते हैं। सेवा के अनेक उदाहरण हमें स्वाध्याय करते हुए मिलते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने देश व समाज से अन्धकार दूर करने के लिये सन् 1902 में गुरुकुल कांगड़ी विद्यालय की स्थापना की थी। यहां सभी बच्चे आवासीय शिक्षा पद्धति से पढ़ते थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी विद्यालय के सर्वेसर्वा आचार्य व प्राचार्य थे। एक बार गुरुकुल का एक विद्यार्थी बीमार हो गया। स्वामी जी उसे देखने पहुंचे तो उस समय उसको उल्टी वा कै आने वाली थी। उन्होंने दूसरे विद्यार्थी को उल्टी कराने के लिये एक पात्र लाने को कहा। वह लेने गया परन्तु उस बालक को उल्टी आ गई। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने दोनों हाथों की अंजलि उस बालक के आगे कर दी और अपने हाथों में उल्टी कराकर सेवा का एक अनूठा उदाहरण दिया। स्वामी जी के बारे में कहा जाता है कि वह गुरुकुल में किसी बच्चे को अपने माता-पिता के वहां न होने का अभाव अनुभव नहीं होने देते थे। माता-पिता के समान व उनसे बढ़कर सभी बच्चों का ध्यान रखते व सेवा करते थे।
एक ऐसा ही अन्य उदारण महात्मा रुलिया राम जी के जीवन का है। पंजाब में एक गांव में एक बार प्लेग का रोग फैला। वहां लोग धड़ाधड़ मर रहे थे। परिवार के सदस्य भी अपने घर के रोगियों को छोड़कर गांव से पलायन कर रहे थे। महात्मा रुलियाराम जी अपने कुछ साथियों सहित दयाईयां व अन्न आदि लेकर सहायतार्थ उस गांव में पहुंच गये। एक घर में गये तो वहां एक रोगी पड़ा हुआ कराह रहा था। उसके गले में प्लेग की गिल्टी थी। महात्मा जी ने उसे देखा तो अनुभव किया कि शीघ्र ही इसके प्राण निकलने वाले हैं। उसका तत्काल आपरेशन करना होगा। उन्होंने अपने साथी को एक चाकू लाने को कहा। चाकू नहीं मिला तो उनका साथी पड़ोसियों के घरों में गया। तभी महात्मा जी ने देखा कि उस रोगी के प्राण निकलने को हैं। उनसे रहा न गया। उन्होंने अपने दातों से उसके गले की गिल्टी को काट डाला जिससे गिल्टी का पीप व मवाद पिचकारी बनकर उनके सारे चेहरे पर फैल गया। इतनी ही देर में उनका साथी चाकू लेकर आया। उसने महात्मा जी का चेहरा देखा तो बोला महात्मा जी आपने अपना जीवन संकट में डाल दिया है। यह आपने ठीक नहीं किया। महात्मा जी बोले कि इस जीवन को तो एक दिन नष्ट होना ही है। यदि इससे किसी को कुछ सुख मिलता है तभी इसका होना सार्थक है। मुझे अपने जीवन की चिन्ता नहीं है। यह आज नष्ट हो या कालान्तर में। मुझे तो अपने जीवन से दूसरों के दुःखों को दूर करना और उन्हें सुख प्रदान करना है। जिस व्यक्ति की गिल्टी को महात्मा जी ने अपने दांतों से काटा था उस व्यक्ति की गिल्टी के खून, पीप व मवाद को भी महात्मा जी अपने हाथों से दबा कर व अपने मुंह से खंीच-खींच कर निकालते रहे और थूकते रहेे। इससे उसके प्राण बच गये। इससे महात्मा जी को सन्तोष हुआ। डीएवी स्कूल व कालेज के संस्थापक महात्मा हंसराज जी को लाहौर में इस घटना का पता चला तो वह भी इससे अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने महात्मा रुलियाराम जी के इस कृत्य की भूरि भूरि प्रशंसा की। वह रोगी व्यक्ति भी महात्मा जी की इस सेवा व उपकार से उनका सदा-सदा के लिये कृतज्ञ व ऋणी हो गया। यह सच्ची घटना सेवा का अत्युत्तम उदाहरण है। ऐसा उदाहरण इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलता।
महात्मा हंसराज जी ने अपना सारा जीवन दयानन्द ऐंग्लो-वैदिक स्कूल व कालेज को दान दिया था। उन्होंने स्कूल से कभी एक पैसा भी वेतन नहीं लिया। अत्यन्त अभावों में उनका व उनके परिवार का जीवन व्यतीत हुआ। उनके पढ़ाये बच्चे बहुत ऊंचे-ऊंचे पदो पर आसीन हुए। आज वही डी0ए0वी0 स्कूल व कालेज सरकार के बाद देश का शिक्षा प्रदान करने वाला सबसे बड़ा संगठन है। एक अनुमान के अनुसार डी0ए0वी0 स्कूलों में पंचास लाख से अधिक बच्चे अध्ययन कर रहे हैं। यह साधारण बात नहीं है। सेवा व त्याग से हम अपना जीवन ऊंचा उठा सकते हैं और इससे हमारे देशवासी बन्धुओं का जीवन सुखी होने सहित देश व समाज उन्नति को प्राप्त होता है।
मनुष्य जीवन हमें परमात्मा से सद्कर्म अर्थात् ज्ञानपूर्वक सेवा व परोपकार आदि कार्यों को करने के लिये ही मिला है। ईश्वर सबसे बड़ा सेवक एवं परोपकारी है। उसने सभी जीवों के लिये यह सृष्टि बनाई और इसमें सभी प्राणियों के सुख के लिये नाना प्रकार के साधन बनाये हैं। हमारे सबके शरीर भी परमात्मा ने ही बनाकर हमें प्रदान किये हैं। ईश्वर हमारा स्वामी व उपास्य देव है। हमें ईश्वर के समान ही कर्म यथा सेवा, परोपकार आदि निरन्तर करने चाहियें। इससे हम अपने कर्म के बन्धनों से मुक्त होकर अपने जीवन को उन्नति की ओर ले जाकर दुःखों से मुक्त हो सकते हैं और जीवन भर आत्म-सन्तोष के सुख से लाभान्वित हो सकते हैं। यदि संसार में सभी लोग दूसरों की सेवा को अपना धर्म बना कर उसका आचरण करने लग जाये, तो यह संसार स्वर्ग बन सकता है। हमारे महापुरुषों ने हमें सेवा व परोपकार के मार्ग पर चलने की प्रेरणा व शिक्षा दी है। हमें उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करना है और अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाना है। एक कहावत है 'सेवा करने से मेवा मिलता है'। यह कहावत निःसन्देह सत्य एवं यथार्थ हैं। हमें इसका पालन करना चाहिये।
-मनमोहन कुमार आर्य